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________________ 5 खण्ड-३, गाथा-३२ ३२३ नापि नित्या स्फोटपक्षोदितसमस्तदोषप्रसक्तेः । न च वैदिकवर्णाद्यानुपूर्वी नित्या लौकिकतदानुपूर्व्यविशेषात् । तथाहि- वैदिकवर्णाद्यानुपूर्वी अनित्या वेदानुपूर्वीशब्दवाच्यत्वात् लौकिकवर्णाद्यानुपूर्वीवत् । न च लौकिकानुपूर्व्या विलक्षणेयम्, वैलक्षण्याऽसिद्धेः। तथाहि- किमपौरुषेयत्वमस्या वैलक्षण्यम्, आहोस्विद् विचित्ररूपता ? न तावदाद्यः पक्षः, अपौरुषेयत्वस्य निरस्तत्वात् । नापि वैचित्र्यम् तस्याऽनित्यत्वेनाऽविरोधात् तत्सद्भावेऽपि नित्यत्वाऽप्रसाधकत्वात्। लौकिकवाक्येष्वपि वैचित्र्यस्योपलब्धेश्च। न च वर्णानां नित्य-व्यापिनामानुपूर्वी सम्भवति, देश-कालकृतक्रमानुपपत्तेः । न चाभिव्यक्त्यानुपूर्वी तेषां सम्भविनी, अभिव्यक्तेः प्राग निरस्तत्वात्। (प्रथमखंडे पृ०१४८-पं०७) पूर्ववर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसहितः तत्स्मृतिसहितो वाऽन्त्यो वर्ण: पदम्' इत्यभ्युपगमोऽपि न युक्तिसंगतः, संस्कारस्मरणादेरनुपलभ्यमानस्य तदा सहकारित्वकल्पनायां प्रमाणाभावात् । न चार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिस्तत्कल्पनायां प्रमाणम्, तत्प्रतिपत्तेरन्यथासिद्धत्वात् । न चानुपूर्वीसम्भवेऽपि परपक्षे वर्णा अर्थप्रतिपत्तिहेतुतया सम्भवन्ति, तेषां तत्प्रतिपत्तिजनन- 10 स्वभावत्वे सर्वदा तत्प्रतिपत्तिप्रसक्तेः, तज्जननस्वभावस्य सर्वदा भावात्। अतज्जननस्वभावत्वे न कदाचिदप्यर्थप्रतिपत्तिं जनयेयु: अनपगताऽतज्जननस्वभावत्वात्। न च सहकारिसन्निधानेऽपि तेषामतज्जननवैदिक आनुपूर्वी भी नित्य नहीं है क्योंकि लौकिक वर्णानुपूर्वीसदृश ही है। प्रयोग देखिये - वैदिक वर्णानुपूर्वी अनित्य है क्योंकि 'वेदानुपूर्वी गत शब्द से वाच्य है जैसे लौकिकवर्णाद्यानुपूर्वी। वैदिकानुपूर्वी लौकिक वर्णानुपूर्वी से विलक्षण नहीं है क्योंकि वैलक्षण्य असिद्ध है। सुनिये - क्या अपौरुषेयत्व वैलक्षण्य है ? 15 या विचित्ररूपता ? प्रथम पक्ष अतथ्य है क्योंकि पहले खंड में अपौरुषेयत्व का निरसन हो गया है ( )। वैचित्र्य (उत्पत्ति-नाशादिरूप अथवा वैविध्य) रूप वैलक्षण्य भी नहीं है क्योंकि उस को अनित्यत्व के साथ कोई विरोध नहीं है। अतः वैविध्यरूप वैचित्र्य होने पर भी वह नित्यत्व का साधक नहीं बन सकता। लौकिक वाक्यों में भी वैचित्र्य होता है, वहाँ नित्यत्व नहीं होता। [ नित्य एवं व्यापक वर्गों में आनुपूर्वी सम्भव नहीं ] 20 नित्य एवं व्यापक वर्णों का अनुक्रम सम्भव नहीं है क्योंकि न तो दैशिक क्रम बन सकता है न तो कालिक। कारण :- वर्ण सर्वदेश-सर्वकालवृत्ति हैं। अभिव्यक्ति की आनुपूर्वी भी सम्भव नहीं, क्योंकि अभिव्यक्ति का प्रथमखंड में (पृ०१२९-१४०) निरसन किया जा चुका है। ऐसा मानना – 'पूर्वपूर्व वर्णसंवेदनजन्य संस्कारव्याप्त अन्त्य वर्ण अथवा तत्संस्कारजन्यस्मृतिव्याप्त अन्त्य वर्ण ‘पद' है' - यह भी युक्तियुक्त नहीं है। कारण :- अन्त्य वर्ण क्षण में संस्कार या स्मरण उपलब्धिगोचर नहीं है 25 अतः उस के सहकार की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है। उक्त कल्पना में 'अर्थबोध की अन्यथानुपपत्ति' को प्रमाण नहीं मान सकते क्योंकि यह अन्यथा (पूर्ववर्णज्ञानविशिष्ट अन्त्यवर्णज्ञान से) भी हो सकता है। तथा, आप के (मीमांसक के) पक्ष में किसी तरह आनुपूर्वी की व्यवस्था हो जाय फिर भी वर्गों में अर्थबोधहेतुता का सम्भव नहीं है। प्रश्न यह आयेगा कि वर्ण अर्थबोधजननस्वभाव है या नहीं ? यदि है तो सदा के लिये अर्थबोध चलता रहेगा। यदि नहीं है तो कभी भी उन से अर्थबोध नहीं 30 होगा क्योंकि अर्थबोधअजननस्वभाव मिटनेवाला नहीं है। सहकारिसान्निध्य बल से भी वर्गों का अर्थबोधअजननस्वभाव मिटनेवाला नहीं। यदि मिट गया तो वर्गों में अनित्यत्वापत्तिदोष मीमांसकमत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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