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________________ ३२२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ निरवयवस्याऽक्रमस्य नित्यत्वादिधर्मोपेतस्य स्फोटस्यैकावभासज्ञानेनाननुभवाद् अन्यथावभासस्य चाऽन्यथाभूतार्थाऽव्यवस्थापकत्वाद् व्यवस्थापनेऽतिप्रसङ्गात् । अवयविद्रव्यं त्ववयवजन्यत्वेन तदाश्रितत्वेन चाध्यक्षप्रत्यये प्रतिभासत इति न तन्न्याय: स्फोटे उत्पादयितुं शक्यः (३१६-२) तन्न स्फोटात्मा शब्दो वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तः। अथ तदव्यतिरिक्तोऽसावभ्युपगम्यते तदा वर्णनानात्वे तन्नानात्वप्रसक्तिः तदेकत्वे वा 5 वर्णानामप्येकत्वप्रसक्तिः। [ मीमांसकमतेन शब्दस्वरूपं तन्निरसनं च ] अथ गकाराद्यनुपूर्वीविशिष्टोऽन्त्यो वर्णः विशिष्टानुपूर्वीका वा गकारौकारविसर्जनीयाः शब्दः। तथा च मीमांसकाः प्राहुः - [श्लो० वा. स्फो० ६९] यावन्तो यादृशा ये च यदर्थप्रतिपादकाः। वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्ते तथैवावबोधकाः ।।' 10 एतदपि न सम्यक् । यतः आनुपूर्वी यद्यनर्थान्तरभूता तदा वर्णा एव नानुपूर्वी। ते च व्यस्ता: समस्ता वाऽर्थप्रत्यायका न भवन्तीत्यावेदितम् । अथार्थान्तरभूता, तदा वक्तव्यम् सा नित्या अनित्या वा ? न तावदनित्या स्वसिद्धान्तविरोधात्, वैदिकानुपूर्व्या नित्यत्वेनाभ्युपगमात्___'वक्ता न हि क्रमं कश्चित् स्वातन्त्र्येण प्रपद्यते।' (श्लो० वा० शब्द० श्लो० २८८) इत्याद्यभिधानात् । अन्त्यवर्णविषयत्व से एकत्वावभास की संगति हो सकती है। एकावभासि ज्ञान में निरवयव अक्रमिक 15 नित्यत्व आदि धर्मों से युक्त स्फोटतत्त्व का अनुभव नहीं होता। एक प्रकार के अवभास से अन्य प्रकार के अर्थ का निश्चय नहीं किया जा सकता। करेंगे तो अश्वावभास से गर्दभ का निश्चय हो जायेगा। जो पहले अवयवी की बात की गयी थी उस में तथ्य यह है कि अवयवी द्रव्य अवयवजन्य एवं अवयवाश्रित होने से वह तो प्रत्यक्षप्रतीति में भासता है, स्फोट के लिये यहाँ तुल्य न्याय निरवकाश है। सारांश, स्फोटात्मक शब्द वर्गों से भिन्न स्वतन्त्रपदार्थ नहीं है। यदि वर्गों से अभिन्न स्वीकारे तो 20 वर्षों की अनेकता से स्फोट में भी बहुत्व प्रसक्त होगा, अथवा स्फोट को एक मानने पर वर्गों में भी एकत्व का अतिप्रसङ्ग आयेगा। [ आनुपूर्वीस्वरूप शब्द प्रदर्शक मीमांसक का निषेध ] मीमांसकमत है कि ग-औ-विसर्ग इत्यादि आनुपूर्वीविशिष्ट जो अन्त्यवर्ण विसर्ग () है, अथवा आनुपूर्वीविशेषयुक्त जो गकार-औकार-विसर्ग हैं वह या वे 'शब्द' हैं - श्लो० वा० शब्दनित्य० श्लो 25 ६९ में मीमांसकवर्य कुमारिलभट्ट कहते हैं - व्यक्त सामर्थ्यवाले जैसे जितने जो भी वर्ण प्रतिपाद्य हैं वे वैसे ही अर्थावबोधकारी होते हैं। यह मीमांसकमत सच नहीं। आनपर्वी यदि वर्णों से पथक नहीं है तो आखिर वर्ण ही 'शब्द हुए - पहले तो यह कह चुके हैं कि व्यस्त या सामासिक वर्ण अर्थबोधक हो नहीं सकते। यदि वर्ण और आनुपूर्वी पृथक् हैं तो पूछना है कि आनुपूर्वी नित्य है या अनित्य ? अनित्य तो आप नहीं कह 30 सकते क्योंकि आप के (नित्यशब्दवादी) मीमांसक के सिद्धान्त का विरोध होगा। वेदगत आनुपूर्वी को आप नित्य मानते हैं। श्लो० वा० शब्द० श्लो० २८८ में कहा है कि किसी भी वक्ता को स्वतन्त्रतया क्रम विदित नहीं होता।' तथा, नित्यत्वस्वीकार में भी स्फोटवादोक्त (३१८-८) सभी दोषों का प्रवेश होगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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