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________________ खण्ड-३, गाथा-२८ ३०५ कार्यकाले विनाशवत् अविनाशवच्च, तथैव प्रतीतेरन्यथा चाऽप्रतीतेः ।।२७।। [ सिद्धान्तवित्कृतं नयसत्याऽसत्यताविभागविमर्शनम् ] अत एकान्तरूपस्य वस्तुनोऽभावात् सर्वेऽपि नया: स्वविषयपरिच्छेदसमर्था अपि इतरनयविषयव्यवच्छेदेन स्वविषये वर्तमाना मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाह(मूलम्-) णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। 5 ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।।२८ ।। निजकवचनीये = स्वांशे परिच्छेद्ये सत्याः = सम्यग्ज्ञानरूपाः सर्व एव नया संग्रहादयः परविचालने = परविषयोत्खनने मोहाः = मुह्यन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः, परविषयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात्, तदभावे स्वविषयस्याप्यव्यवस्थितेः ततश्च परविषयस्याभावे स्वविषयस्याप्यसत्त्वात् तत्प्रत्ययस्य मिथ्यात्वमेव तद्व्यतिरिक्तग्राहकप्रमाणस्य चाभावात् । 10 उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। तद् तद् वस्तु तत्तद् अपेक्षा से कार्य भी है अकार्य भी, कारण भी है अकारण भी, कारण में कार्य सत् है असत् भी, कार्यकाल में कारण विनाशी है अविनाशी भी, क्योंकि वैसा ही प्रमाण से ज्ञात होता है, अन्य (एकान्त) प्रकार से प्रतीत नहीं होता ।।२७।। [ सिद्धान्तज्ञाता की नयसत्याऽसत्यता के प्रति विवेकदृष्टि ] अवतरणिका :- उक्त चर्चा से यह सूचित होता है कि एकान्तरूप वस्तु न होने से सभी नय 15 अपने अपने विषय का अवबोध करने में सक्षम होने पर भी यदि वे अन्यनय के विषय का निषेध कर के अपने विषय में आविष्ट रहते हैं तो आखिर मिथ्यात्व में गिर पडते हैं - उपसंहार में यही कहते हैं - गाथार्थ :- अपने अपने वक्तव्य के प्रति सत्य ऐसे सभी नय अन्य का उच्चाटन करे तब मिथ्या बन जाते हैं। (अत एव) शास्त्रव्युत्पन्न (पुरुष) 'यह सच्चा - यह झूठा' इस प्रकार विभाजन नहीं 20 करता।।२८।। व्याख्यार्थ :- निजकवचनीय = अपने ग्राह्य अंश (= विषय) में संग्रहादि सभी नय सत्य = सम्यग्ज्ञानमय होते हैं किन्तु परविचालन = अन्य नय के विषयों का खण्डन करने का साहस करते हैं तब मोहा = मूढताग्रस्त हो जाते हैं, यानी मिथ्याज्ञान बन जाते हैं। कारण :- अन्य का विषय भी उस की प्रामाणिक अपेक्षा से सत्य होने के कारण उस का उत्खनन करना शक्य नहीं होता। 25 अरे ! अपना विषय भी (दीर्घत्वादि) अन्य नय के (ह्रस्वत्वादि) विषय से निरपेक्ष बन जाने पर सुनिश्चित नहीं हो सकेगा। यदि अन्य नय के विषय का खंडन कर के उस का अभाव सिद्ध करेंगे तो अपना विषय भी असिद्ध हो जाने से तद्ग्राहक अवबोध मिथ्या ही ठहरेगा। (उच्चत्व-हस्वत्वादि के बिना नीचत्व-दीर्घत्वादि सिद्ध कैसे होगा ? खंधे पर लगाई हुई कावडिका में जो दोनो छोर पर दूध और दहीं के मटके रखे हैं, यदि उस में एक घट दूसरे घट को तोड देगा तो वह खुद भी 30 सलामत कैसे रहेगा, सब भार एक ओर आ जाने से वह भी नीचे गिर कर फुट जायेगा ।) क्योंकि अन्यनय के विषय से निरपेक्ष स्वविषय का बोधकारी कोई प्रमाण ही नहीं हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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