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________________ ३०६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ तस्मात् तानेव नयान् पुनःशब्दस्यावधारणार्थत्वात् न इति प्रतिषेधो विभजनक्रियायाः दृष्टः समयः सिद्धान्तवाच्यमनेकान्तात्मकं वस्तुतत्त्वं येन पुंसा स तथा, स न विभजते सत्येतरतया स्वेतरविषयमवधारयमाणोऽपि तथा तान् न विभजते अपि वितरनयविषयसव्यपेक्षमेव स्वनयाभिप्रेतं विषयं सत्यमेवावधार यतीति यावत्। 'ग्राह्यसत्याऽसत्याभ्यां ग्राहकसत्यासत्ये' इत्येवमभिधानम् तच्च दृष्टाऽनेकान्ततत्त्वस्य 5 विभजनम् ‘स्यादस्त्येव द्रव्यार्थतः' इत्येवंरूपम् ।।२८।। अतो नय-प्रमाणात्मकैकरूपताव्यवस्थितमात्मस्वरूपम् अनुगतव्यावृत्तात्मकम् उत्सर्गापवादरूपग्राह्यग्राहकात्मकत्वाद् व्यवतिष्ठते इत्यर्थप्रदर्शनायाह(मूलम-) दव्ववियवत्तव्वं सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं । आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्यमग्गो य ।।२९।। 10 यत्किञ्चिद् द्रव्यार्थिकस्य संग्रहादेः सदादिरूपेण व्यवस्थितं वस्तु वक्तव्यं = परिच्छेद्यम् तत् सर्वं सर्वेण प्रकारेण नित्यं = सर्वकालम् अविकल्पं = निर्भेदम् सर्वस्य सदसद्विशेषात्मकत्वात् तच्च भेदेन [ अन्यनयविषयसापेक्षभाव से स्वनयविषय का ग्रहण ] यही हेतु है कि सिद्धान्तगम्य अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व का दृष्टा पुरुष, उन्हीं नयों को यद्यपि अपने अपने विषय के निश्चायकस्वरूप से जानता हुआ भी, (उन्ही नयों को) 'यह सच्चा यह झूठा' 15 - इस तरह विभाजित करने का साहस नहीं करता। किन्तु अन्यनय के विषय से सापेक्ष रह कर ही अपने नय मान्य विषय की सचाई का निश्चय करता है। तात्पर्य है कि अर्थग्राही नय की सत्यता/ असत्यता स्वतः नहीं होती किन्तु अपने ग्राह्य विषय की सत्यता/असत्यता पर अवलम्बित होती है (एक नय का ग्राह्य विषय यदि अन्य नयग्राह्य विषय को सापेक्ष होता है तो वह सत्य है अन्यथा असत्य है – यदि ऐसे सत्य विषय को नय ग्रहण करता है तो वह सत्य है अन्यथा वह भी असत्य 20 है।) यह है तात्पर्य निवेदन । उस का मतलब यह होगा कि अनेकान्ततत्त्वदर्शी व्यक्ति सत्य का विभाजन इस तरह करेगा कि 'द्रव्यार्थ की अपेक्षा वस्तु कथंचित् सत् ही है' - यहाँ गौर करो कि अपेक्षा को आगे रख कर कथंचिद् रूप से अन्य नय के विषय की सापेक्षता को बरकरार रख कर ही 'सत्य' नय का प्रतिपादन किया गया है।।२८।। [ द्रव्यार्थिक/पर्यायार्थिक नय से एक वस्तु का स्वरूप ] 25 अव० :- अन्य तत्त्वों की तरह आत्मा के लिये भी ऐसा ही समझना कि वह नय-प्रमाणोभयात्मक ___ होते हुए भी निश्चित एकरूप है, अनुगत (= सामान्य) और व्यावृत्त (= विशेष) उभयात्मक एक है, कदाचित् उत्सर्गरूप से कदाचित् अपवादरूप से ग्राह्य है एवं तथैव ग्राहक भी है - इस तथ्य का निरूपण करते हैं - गाथार्थ :- द्रव्यार्थिकनयवाच्य सर्व (वस्तु) सर्व प्रकार से हरहमेश निर्विकल्प होती है। तथा वही 30 (वस्तु) विभाग आरब्ध हो कर पर्यायनयवाच्य पंथ बन जाता है।।२९ ।। व्याख्यार्थ :- संग्रहादि द्रव्यार्थिक नय मत से जो कुछ 'सत्' आदि रूप बोधनीय वस्तु है वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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