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________________ ३०४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 'न विकारी' इति प्रतिपादितम् । भेदाभेदेऽनेकान्तसिद्धिः, व्यतिरेके द्वैतापत्तिरिति । प्रतिक्षिप्तश्च प्रधानाद्वैतवाद इति न पुनः प्रतिषिध्यते। शब्दाद्वैतं तु नामनिक्षेपावसरे प्रतिक्षिप्तमिति न तदभ्युपगमोऽपि श्रेयान् । ब्रह्माद्वैतवादस्यापि प्रागेव प्रतिषेधः कृतः, इति ‘तदेव वा' (गाथा २७-तं चेव व) इति अयमपि 5 पक्षो मिथ्यात्वम्। ततः 'कारणे परिणामिनि वा कार्यं परिणामो वा सदेव' 'तावेव तौ' 'असदेव वा तत् तत्र' इति, न कारणमेव कार्यम् परिणामी वा परिणामः । न कार्यम् नापि कारणम् अपि तु 'द्रव्यमानं तत्त्वमिति 'तदेव वा' इति नियमेन एकान्ताभ्युपगमे सर्व एवैते मिथ्यावादा उक्तन्यायेन नियमेन मिथ्यात्वम् इत्यभिधानात् । कथञ्चिदभ्युपगमे 'सम्यग्वादा एवैते' इत्युक्तं भवति । यत उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकत्वे वस्तुनः 10 स्थिते तद् वस्तु तत्तदपेक्षया कार्यं अकार्यं च, कारणं अकारणं च, कारणे कार्यं सच्च असच्च, कारणं एकदेशीय सांख्यवादी पुरुष को न मान कर एकमात्र प्रधान तत्त्व का अद्वैत मानते हैं वह भी अयुक्त है, क्योंकि सत्त्व रजः तमस् के अलावा कोई स्वतन्त्र प्रधान तत्त्व है नहीं। यदि प्रधान से अभिन्नता के कारण सत्त्वादि प्रधानमय होने से प्रधान-अद्वैत बाधरहित है - तो सत्त्वादि तीन से अभिन्न होने से उलटा प्रधान में द्वैत प्रसक्त होगा। तदुपरांत 'महत्'-'अहंकारादि' तत्त्वों का स्वीकार 15 करते हैं तो अद्वैत रहा कैसे ? यदि महत् आदि विकार और विकारी प्रधान का अत्यन्त अभेद मानेंगे तो विकार जैसा कुछ रहा नहीं, मतलब अविकारी प्रधान ही शेष रहेगा, तो सत्त्व या महत् आदि का उच्छेद होगा। यदि विकार-विकारी का कथंचित् भेदाभेद मानेंगे तो अद्वैत के बदले अनेकान्त की सिद्धि हो जायेगी। यदि उन का भेद ही मानेंगे तब तो स्पष्ट ही द्वैत का भूत धुनेगा। पहले भी प्रधानाद्वैतवाद का निषेध किया जा चुका है अतः फिर से बार बार निषेध कितना करे ? 20 शब्दाद्वैत का प्रतिषेध नामनिक्षेपविचार के प्रस्ताव में किया गया है अतः उस का स्वीकार भी श्रेयस्कर नहीं। ब्रह्माद्वैतवाद का भी पहले ही निषेध हो चुका है। (सारांश :-) अतः मूल गाथा उत्तरार्ध में 'तं चेव व' यानी 'तदेव वा' इस वाक्यावयव से जो ‘वही एक है' ऐसा एकान्त अद्वैत पक्ष का निर्देश किया गया है उस में भी मिथ्यात्व सिद्ध होता है। [ कारण-कार्य-परिणाम-सत्-असत् आदि चर्चा का निगमन ] 25 मूल गाथा २७ में उत्तरार्ध में समूहसिद्ध अथवा परिणामकृत अर्थ के लिये जो विविध विकल्पों में मिथ्यात्व का निरूपण किया है उस की व्याख्या करते हुए अब व्याख्याकार कहते हैं - Aकारण . में कार्य सत् ही है, परिणामी में परिणाम सत् ही है, वे (कारण या कार्य अथवा सत् या असत्) वे ही है, अथवा कारण या परिणामी में कार्य या परिणाम असत् ही है, कारण कार्यात्मक नहीं है, परिणामी परिणामात्मक नहीं है, न तो कोई कार्य है न कारण - तत्त्व तो द्रव्याद्वैत है यानी 30 (जो है) वही है - इन विविध प्रकारों से नियमपूर्वक एकान्त को मानने पर ये सभी प्रवाद मिथ्यावाद है। पूर्वोक्तयुक्ति अनुसार अवश्यमेव मिथ्यात्व ऐसा कथन करने से गर्भितरूप से यह कहना है कि कथंचिद् रूप से उन प्रवादों को मानने पर वे सब सम्यग्वाद हैं, क्योंकि वस्तु जब निश्चितरूप से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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