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________________ खण्ड-३, गाथा-२७ पररूपव्यावृत्त-स्वरूपाऽव्यावृत्तात्मकत्वेन तस्य द्विरूपताप्रसक्तेः, अव्यतिरेके पुनर्वैतप्रसक्तिः । न चाऽद्वैतस्याऽविद्यमानाद् द्वैताद्व्यावृत्ततासम्भवः, अविद्यमानस्यापि विद्यमानाद् व्यावृत्तिप्रसक्तेः, अन्यथा सद्रूपताविशेषप्रसक्तिर्भवेत्। प्रमाणादिचतुष्टयसद्भावे च न द्वैतवादाद् मुक्तिः तदभावे शून्यतावादाद् इति नाऽद्वैतकल्पना ज्यायसी। न च नित्यत्वाऽद्वैतकल्पना भावानामनेकत्वेऽपि युक्तिसङ्गता, सर्वदा सर्वभावानां नित्यत्वे ग्राह्य- 5 ग्राहकरूपताऽभावप्रसक्तेः, तद्भावाभ्युपगमे वाऽऽनेकान्तवादाश्रयणम् ग्राह्य-ग्राहकरूपताया विकारिताव्यतिरेकेणाऽयोगात् सा च कथञ्चिदेकस्यानेकरूपानुषङ्गादिति कथं नानेकान्तसिद्धिः ? द्रव्याद्वैतवादे रूपादिभेदाभावप्रसङ्गश्च । न च चक्षुरादिसम्बन्धात् तदेव द्रव्यं रूपादिप्रतिपत्तिजनकम् सर्वात्मना तत्सम्बन्धस्य तथैव प्रतीतिप्रसक्तेः रूपान्तरस्य तद्व्यतिरिक्तस्य तत्राभावात्। तन्न द्रव्याद्वैतमपि। । प्रधानाद्वैतं त्वयुक्तमेव सत्त्वादिव्यतिरेकेण तस्याभावात्। न च सत्त्वादेस्तदव्यतिरेकादद्वैतं प्रधानस्य, 10 सत्त्वाद्यव्यतिरेकाद् द्वैत प्रसक्ते: महदादिविकारस्य चाभ्युपगमे कथं द्वैतम् ? विकारस्य च विकारिणोऽत्यन्तमभेदे हो उस का उस से भेद मानने पर द्वैत का प्रवेश होगा। कारण :- पररूप से व्यावृत्त और अपने स्वरूप से अव्यावृत्त ऐसे द्वैरूप्य का प्रवेश प्राप्त होगा। और अद्वैत के भेद के बदले अभेद मानने पर द्वैत सिद्ध हो गया। द्वैत यदि अविद्यमान मानेंगे तो द्वैत से अद्वैत में व्यावृत्ति का सम्भव ही नहीं होगा। यदि सम्भव मानेंगे तो विद्यमान की व्यावृत्ति अविद्यमान में भी माननी पडेगी। नहीं मानेंगे 15 तो अविद्यमान में भी विद्यमान की तरह सत्रूपता निर्विवाद प्रसक्त होगी। यदि अद्वैत को प्रमाणसिद्ध मानना है तो प्रमाण-प्रमेय-प्रमाता-प्रमिति इस चौकट को भी मानना पडेगा, तब तो द्वैतवाद ऐसा गले पडेगा, छूट नहीं पायेंगे। प्रमाणादि चौकट न मानने पर शून्यवाद गला पकडेगा – सारांश, अद्वैतवादकल्पना तनिक भी शोभाप्रद नहीं। दूसरी ओर, भावों की अनेकता स्वीकारने पर भी एकमात्र नित्यता का अद्वैत भाव (यानी एकमात्र 20 अनित्यता) मानेंगे तो वह भी युक्तियुक्त नहीं। कारण :- हर हमेश सभी भावों को नित्य = यानी अविकारी मानेंगे तो कोई ग्राह्य – कोई ग्राहक ऐसा भेद समाप्त हो जायेगा। यदि भेद मानेंगे तो एक ही भाव में कदाचित् ग्राहकत्व, कदाचित् ग्राह्यत्व स्वीकारने पर अनेकान्तवाद का शरण लेना पडेगा। कारण, कभी ग्राह्य हो कर बाद में ग्राहक इत्यादि भेद तो विकारी (यानी अनित्य) स्वरूप मानने पर ही संगत होगा अन्यथा नहीं। विकारिता तभी होगी जब एक ही पदार्थ में कथंचिद अनेक (ग्राह्य-ग्राहकादि) ध संसर्ग स्वीकार लिया जाय । अब बताइये अनेकान्तवाद सिद्धि क्यों नहीं होगी ? [ द्रव्याद्वैत-प्रधानाद्वैत-शब्दाद्वैत-ब्रह्माद्वैत सब अविश्वस्य ] कुछ लोग द्रव्याद्वैत मानते हैं वह भी अयुक्त है क्योंकि एक स्वरूप एक ही द्रव्य मानने पर उस के प्रत्यक्षसिद्ध रूप-रसादि के भेद का उच्छेद हो जायेगा। यदि कहें कि - ‘नेत्रादि के सम्बन्ध एक ही द्रव्य तत्तत् रूपादिबुद्धि का जनक होता है' - तो यह ठीक नहीं, नेत्रादि का द्रव्य के साथ यदि सर्व प्रकार 30 से तादात्म्य सम्बन्ध होगा तो पुनः एकरूप से प्रतीति होगी तो रूपादि के भेद का उच्छेद गले पडेगा, क्योंकि अद्वैतवाद में द्रव्यभिन्न कोई अन्य अन्य रूप है नहीं। अतः द्रव्याद्वैतवाद भी निषेधार्ह ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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