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________________ ३०२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ भावा:-इत्युत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणमेव भावानां सत्त्वभ्युपगन्तव्यमिति नैकान्ततः कारणेषु कार्यमसद् इति 'न तत्' (गाथा २७ उत्तरार्धे ‘ण तं') इति पक्षो मिथ्यात्वमिति स्थितम् । [विविध-अद्वैततत्त्ववादिमतानां निरसनम् ] __ अपरस्तु कार्य-कारणभावस्य कल्पनाशिल्पिविरचितत्वात्तदुभयव्यतिरिक्तमद्वैतमात्रं तत्त्वमित्यभ्युपपन्नः। 5 तन्मतमपि मिथ्या, कार्य-कारणोभयशून्यत्वात् खरविषाणवत्, अद्वैतमात्रस्य व्योमोत्पलतुल्यत्वात्। तथाहिअद्वैतप्रतिपादकप्रमाणस्य सद्भावे द्वैतापत्तितो नाद्वैतम्, प्रमाणाभावेऽद्वैताऽसिद्धेः, प्रमेयसिद्धेः प्रमाणनिबन्धनत्वात् । किञ्च, 'अद्वैतम्' इत्यत्र प्रसज्यप्रतिषेधः पर्युदासो वा ? प्रसज्यपक्षे प्रतिषेधमात्रपर्यवसानत्वात्तस्य नाद्वैतसिद्धिः, प्रधानोपसर्जनभावेनाङ्गाङ्गिभावकल्पनायां द्वैतप्रसक्तिः। द्वितीयपक्षेऽपि द्वैतप्रसक्तिरेव प्रमाणान्तरप्रतिपन्ने द्वैतलक्षणे वस्तुनि तत्प्रतिषेधेनाऽद्वैतसिद्धिः । द्वैताद् अद्वैतस्य व्यतिरेके च द्वैतप्रसक्तिरेव, 10 सत्त्व बेठता है' ? नहीं, पूर्व में प्रदर्शित युक्तियों ( ) के बल से वह भी बहिष्कृत ही है। यदि सत्तासम्बन्धरूप सत्त्व, एकान्त अक्षणिक पदार्थों में मानेंगे तो शशविषाणादि में अतिव्याप्ति और असम्भवादि दोषों की मलिनता स्पर्शेगी, तब सत्त्व के बदले असत्त्व ही आ पडेगा। सारांश, एकान्त अक्षणिक पदार्थ भी असत् हैं। आखिर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य त्रिपुटी को ही भाव का निर्दोष लक्षण मान लेना उचित है। 15 सिद्ध यह हुआ कि कारणों में कार्य एकान्ततः असद् नहीं होता। अतः मूल (२७ वीं) गाथा के उत्तरार्ध में जो दूसरा पक्ष कहा था कि 'वे (यानी रत्नों) तद्रूप (समुदायात्मक) नहीं है' इस एकान्तवाद में भी उसी गाथा के अन्तिम पद से जो मिथ्यात्व कहा गया है वह सिद्ध हो गया। 1 [विविध अद्वैतवादियों अद्वैततत्त्व का निरसन ] ___अन्यवादी :- कार्य और कारण ऐसा द्वैतभाव कल्पनाकलाकार की कृति है, वास्तव में तदुभय 20 से विनिर्मुक्त अद्वैत ही तात्त्विक है। सिद्धान्तवादी :- यह मत भी मिथ्या है, क्योंकि इस मत में न कोई कारण है न कुछ कार्य, शून्यमात्र है जैसे गर्दभविषाण। अद्वैतमात्र तत्त्व की बात गगनकमलवार्तातुल्य है। कैसे यह देखिये - यदि अद्वैत का साधक कोई स्वतन्त्र प्रमाण विद्यमान होगा तो अद्वैत और प्रमाण के द्वैत की आपत्ति होगी, अतः अद्वैत निषेधपात्र है। यदि प्रमाण नहीं है, तो अद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती, 25 क्योंकि प्रमेय (अद्वैत) की सिद्धि प्रमाणमूलक ही होती है। दूसरी बात :- 'न द्वैतम् अद्वैतम्' यहाँ प्रसज्यप्रतिषेध माना जाय या पर्युदास ? प्रसज्यपक्ष में निषेध मात्रनिषेधपरक ही होता है अतः यहाँ द्वैत का निषेध करने पर भी अद्वैत का साधन न होने से अद्वैत सिद्ध नहीं होगा। यदि ऐसा कहें कि - ‘मुख्यतया यहाँ द्वैत का निषेध ही है किन्तु गौणतया अद्वैत का विधान भी है - इस तरह अङ्ग-अङ्गीभाव की कल्पना करेंगे।' तो पुनः एक 30 अङ्ग है दूसरा अङ्गी इस प्रकार द्वैत का प्रवेश निर्व्याघात होगा। यदि पर्युदास (दूसरा) निषेध मानेंगे तो पुनः द्वैत प्रवेश होगा, क्योंकि यहाँ प्रमाणान्तर सिद्ध (द्वैतरूप) वस्तु का किसी देश-काल में निषेध कर के ही अद्वैत की सिद्धि हो सकती है। यहाँ जिस द्वैत के निषेध से अद्वैत का विधान करते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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