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खण्ड-३, गाथा-२७
३०१ ट्कसंयोगात् सावयवत्वकल्पनया अवस्तुत्वप्रसक्तेः सेना-वनादिवत् स्वसंविदि निर्विकल्पिकायामप्रतिभासत: सर्वप्रतिभासविरतिर्भवेत् । एवमक्षणिकोऽपि क्रमभाव्यनेकतत्तत्सहकारिसम्बन्ध्यन्तरसव्यपेक्षकार्यजननस्वभाव - भेदेऽप्यभिन्नोऽभ्युपगन्तव्यः, जनकत्वाऽजनकत्वभेदेऽपि वाऽभिन्नस्वभाव इति नाक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधः । न च क्षणक्षयेऽध्यक्षप्रवृत्तिव्यतिरेकेण अक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधः सिध्यति इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। तथाहिअक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् प्रतिक्षणविशरारुषु अध्यक्षप्रवृत्तिसिद्धिः तस्माच्चाऽक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोध- 5 सिद्धिरिति।
न चाऽक्षणिकवादमतेऽप्ययं समानो दोषः, कालान्तरस्थायिनि भावेऽध्यक्षप्रवृत्तिनिश्चयादेव क्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधस्य सिद्धेः । न च क्षणिकेऽध्यक्षप्रवृत्तिरुपजातैव केवलं भ्रान्तिकारणसद्भावाद् न निश्चितेति वक्तव्यम् - विहितोत्तरत्वात् (३००-५)। तन्नैकान्तक्षणिकस्यार्थक्रियाकरणलक्षणं सत्त्वम् अन्यस्य च सत्तासम्बन्धादेः सत्त्वस्य परेणाऽनभ्युपगमात् असन्त एकान्तक्षणिकाः।
क्षणिकवदेकान्ताऽक्षणिकेष्वप्यर्थक्रियालक्षणं सत्त्वं पूर्वोपदर्शितन्यायेन व्यावृत्तम् सत्तासम्बन्धलक्षणस्य च सत्त्वस्याऽतिव्याप्तित्वा(?व्याप्त्य)ऽसम्भवादिदोषदुष्टत्वात् असत्त्वमित्येकान्ताऽक्षणिका अप्यसन्तो वहाँ अनेक सम्बन्धिभेद से भिन्न मानेंगे तो छ दिशा के योग से उस को सावयव मानने की, फलतः परम्परया अवस्तु मानने की आपत्ति होगी। प्रतिभास तो सेना-वनादि पुञ्ज का होता है उसकी निर्विकल्प संवेदना में एक ज्ञानपरमाणु कभी नहीं भासता, तो आखिर कुछ भी नहीं भासता यही मानना पडेगा। 15 इसी तरह अक्षणिक पदार्थ में क्रमशः अनेक पृथक् पृथक् सहकारिरूप अन्य अन्य सम्बन्धियों की अपेक्षा रखते हुए पृथक् पृथक् कार्यकारि स्वभावभेद भले रहे किन्तु स्वयं तो एक अभिन्न होता है - यह मानना पडेगा। अथवा ऐसा मानो कि अक्षणिक पदार्थ में जनकत्व-अजनकत्व ऐसा भेद भले रहे किन्तु स्वयं अभिन्न होता है, अतः उस में क्रमिकअर्थक्रिया योग के साथ कोई विरोध नहीं है। जब तक क्षणभंग विषय में प्रत्यक्ष का प्रचलन सिद्ध नहीं है तब तक अक्षणिक में अर्थक्रियाविरोध सिद्ध नहीं 20 हो सकता, अन्यथा इतरेतराश्रय दोष का प्रवेश होगा। देखिये - अक्षणिक में अर्थक्रियाविरोध सिद्ध होने पर प्रतिक्षणविनाशी परमाणु में प्रत्यक्ष का प्रचलन सिद्ध होगा, और उस के सिद्ध होने पर अक्षणिक में अर्थक्रिया के विरोध की सिद्धि होगी।
[ अक्षणिकवाद में अध्यक्षप्रवृत्ति में अन्योन्याश्रय नहीं ] अक्षणिकवाद में समानरूप से अन्योन्याश्रयदोष का प्रवेश शक्य नहीं है क्योंकि अनेकक्षणस्थायी 25 भाव में प्रत्यक्षप्रवृत्ति से निश्चय सिद्ध होने से क्षणिकत्व में अर्थक्रियाविरोध की सिद्धि सरल है। ऐसा नहीं कहना कि :- क्षणिक भाव में प्रत्यक्षप्रवृत्ति होती ही है किन्तु उस से संलग्न भ्रान्तिकारणों के अन्तराय से उस का निश्चय नहीं होता - निषेध कारण :- पहले इस तर्क का प्रत्युत्तर दिया जा चुका है (३००-१८) कि प्रत्यक्ष से क्षणभंग का निश्चय न होने पर कारण-कार्यभाव स्थापना शक्य नहीं ... इत्यादि । सारांश, एकान्तक्षणिक पदार्थ मानने पर अर्थक्रियारूप सत्त्व उस में संगत नहीं होता। 30 अर्थक्रियाभिन्न कोई सत्तासामान्यसम्बन्धरूप सत्त्व तो बौद्धों को मान्य नहीं है अतः फलित हुआ कि सत्त्व न होने से एकान्तक्षणिक माने गये पदार्थ असत् हैं। 'तो क्या एकान्तअक्षणिक पदार्थों में अर्थक्रियालक्षण
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