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________________ २८२ इति तत्र व्यपदेशः, न पुनः प्रत्येकाभिधानम् । । २४ । । तथा सर्वे नवादा यथानुरूपविनिर्युक्तवक्तव्या इति यथा इति वीप्सार्थे अनु इति सादृश्ये रूपम् इति स्वभावे तेनानुरूपमित्यव्ययीभावः, पुनर्यथाशब्देन स एव ' यथाऽसादृश्ये' [ पाणि० २-१-७ ] इत्यनेन, यद् यदनुरूपं तत्र विनिर्युक्तं वक्तव्यं उपचारात् तद्वाचकः शब्दो येषां ते तथा यथानुरूपद्रव्यध्रौव्यादिषु 5 प्रमाणात्मकत्वेन व्यवस्थिताः सम्यग्दर्शनशब्दं 'प्रमाणम्' इत्याख्यां लभन्ते न विशेषसंज्ञाः भिधानानि; एकानेकात्मकत्वेन चैतन्यप्रतिपत्तेः अन्यथा चाऽप्रतिपत्तेरिति । = पृथग्भूता सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ = ननु नय- प्रमाणात्मकचैतन्यस्याध्यक्षसिद्धत्वेन 'रत्नावलि' इति दृष्टान्तोपादानं व्यर्थम् । न, अध्यक्षसिद्धमप्यनेकान्तमनभ्युपगच्छन्तं प्रति व्यवहारसाधनाय दृष्टान्तोपादानस्य साफल्यात् । प्रवर्त्तितश्च से भासित होते हैं। मतलब कि वहाँ एक एक मणि की पृथक् पहिचान नहीं रहती, 'रत्नावली' ऐसा 10 ही नामकरण हो जाता है । । २४ । । (जैसे रत्न एक धागे में उचित क्रम से पिरोये जाने पर 'रत्नावली' बन जाते हैं) वैसे, सभी नयवाद यथानुरूपविनिर्युक्तवक्तव्यवाले हो कर 'सम्यग्दर्शन' शब्द यानी 'प्रमाण' संज्ञा को प्राप्त करते हैं, फिर कोई व्यक्तिगत मणी आदि संज्ञा नहीं रहती । यहाँ जो यथानुरूपविनिर्यु ( ?यु)क्त वक्तव्य - ऐसा अव्ययी समास है उस का विग्रह व्याख्याकार ने इस ढंग से किया है 'यथा' शब्द वीप्सा = 15 द्विरुक्ति सूचक है, 'अनु' पद सादृश्यनिरूपक है, 'रूपम्' पद स्वभाववाचक है, यहाँ 'अनुरूपम्' ऐसा अव्ययीभाव आन्तर समास हुआ। पुनः 'अनुरूप' शब्द को वीप्सावाचक 'यथा' शब्द से जोड कर ( वही = ) अव्ययीभाव समास करना होगा। ऐसा समास पाणिनि व्याकरण के ( २-१-७ ) ' यथाऽसादृश्ये' (इत्यनेन ) इस सूत्र से ( सिद्ध हेम व्याकरण के 'यथाऽथा' ( ३-१-४१ ) इस सूत्र से) बन सकता है। अब पूरे मूल समास का विग्रह इस तरह होगा यद् यद् अनुरूपम् (यहाँ वीप्सा से यद् यद् ऐसी द्विरुक्ति 20 हुई।) जो जो सदृशस्वभाव, तत्र उस विषय में विनियुक्त नियोजित है वक्तव्य यानी उपचार से उन के वाचक शब्द येषां ते = जिन के वे यथानुरूपविनियुक्तवक्तव्य । इस का फलितार्थ यह है कि यथोचित द्रव्य- ध्रौव्यादि के प्रति प्रमाणभूत तरीके से नियोजित यानी व्यवस्थित सर्व नय 'प्रमाण' संज्ञा को प्राप्त करते हैं, विशेष = व्यक्तिगत अलग अलग संज्ञा को प्राप्त नहीं करते छोड देते हैं, क्योंकि चैतन्य स्वयं एक-अनेकात्मकरूप से अनुभवारूढ होता है, एकान्त एकरूप या एकान्त 25 अनेकरूप अनुभूत नहीं होता । [ प्रत्यक्षसिद्ध भाव के लिये दृष्टान्त की उपयोगिता ] शंका :- जब आप कहते हैं कि नयात्मक एवं प्रमाणात्मक बोधरूप चैतन्य प्रत्यक्षसिद्ध है तो रत्नावली का उदाहरण देना निरर्थक है । समाधान :- नहीं, अनेकान्तमत प्रत्यक्षसिद्ध ही है, किन्तु अन्य पंडित उस का सरलता से स्वीकार 30 नहीं करते, उन के प्रति अनेकान्त व्यवहार प्रसिद्ध करने के लिये दृष्टान्त निरूपण सफल हैं । अतः Jain Educationa International = - - = 4. अत्र मूलगाथागत ‘विणिउत्त' इति प्राकृतपदानुसारेण 'विनियुक्त' इत्येव सम्यग् भाति, 'विनिर्युक्त' इत्यस्य तु प्राकृतपदम्' विणिज्जुत्त' इति भवेत् । (भू.सम्पा. युगलम् ।) For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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