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________________ खण्ड-३, गाथा-२४-२५ २८१ जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा। 'रयणावलि' त्ति भण्णइ जहंति पाडिक्कसण्णाउ ।।२४।। तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा । सम्मइंसणसई लहन्ति ण विसेससण्णाओ।।२५।। (व्याख्या:-) यथा अनेकप्रकारा विषविघातहेतुत्वादीनि लक्षणानि नीलत्वादयश्च गुणा येषां ते वैडूर्यादयो मणयः पृथग्भूता रत्नावलीव्यपदेशं न लभन्ते महार्घमूल्या अपि ।।२२।। तथा प्रमाणावस्थायाम् इतरसव्यपेक्षस्वविषयपरिच्छेदकाले वा स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन सुनिश्चिता अपि अन्योन्यपक्षनिरपेक्षाः 'प्रमाणं' इत्याख्यां सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति, निजे च इतरनिरपेक्षसामान्यादिवादे सुविनिश्चिता हेतुप्रदर्शनकुशला अन्योन्यपक्षनिरपेक्षत्वात् सम्यग्दर्शनशब्दं 'सुनयाः' इत्येवंरूपं सर्वेऽपि 10 संग्रहादयो नया न प्राप्नुवन्ति ।।२३।। यदा पुनस्त एव मणयो यथा गुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबद्धाः 'रत्नावलि' इति आख्यामासादयन्ति प्रत्येकाभिधानानि च त्यजन्ति रत्नानविद्धतया रत्नावल्यास्तदनविद्धतया च रत्नानां प्रतीतेः 'रत्नावली' अपने विषयों के बारे में सनिश्चित किन्त परस्पर निरपेक्ष सर्व नय ‘सम्यग्दर्शन' शब्दलाभ प्राप्त नहीं कर सकते ।।२३।। फिर जैसे वे ही मणि गुणविशेष (= एक धागे में अथवा चित्र क्रम से) गूंथित 15 होने पर 'रत्नावली' संज्ञा प्राप्त करते हैं, और प्रत्येक संज्ञाओं का त्याग करते हैं।।२४ ।। इसी तरह, सभी नयवाद यथोचित विनियोगात्मक वक्तव्य युक्त हो जाने पर 'सम्यग्दर्शन' शब्दसंज्ञा प्राप्त करते हैं, पृथक् संज्ञा रहती नहीं ।।२५।। [ पृथग् पृथग् मणियों को 'रत्नावली' बिरुद नहीं ] व्याख्यार्थ :- यथा = विविध प्रकार के जहर उतारने के लिये हेतुभूत लक्षण एवं नील-पीतादि 20 वर्णरूप गुणों को धारण करने वाले वैडूर्यादि मणि पृथक् पृथक् होने पर 'रत्नावली' बिरुद को प्राप्त नहीं कर पाते, चाहे कितने भी महंगे मूल्यवंत हो ।।२२ ।। सर्व नय यद्यपि प्रमाणावस्था में तो सुनिश्चित होते हैं, अथवा इतरसापेक्षस्वविषयबोधकाल में, अपने विषय के बोधकारक होने से सुनिश्चित होते हैं, फिर भी जब परस्पर निरपेक्ष बन जाय तो कोई भी नय सम्यग्दर्शन यानी 'प्रमाण' संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। निज यानी अन्यनिरपेक्ष सामान्यादिप्ररूपक वाद अवसर में सुविनिश्चित यानी 25 युक्तिप्रदर्शन करने में बाहोश होते हुए भी कोई भी संग्रहादि नय जब तक अन्योन्य पक्ष से निरपेक्ष हैं तब तक 'सम्यग्दर्शन' शब्द अर्थात् ‘सुनय' ऐसा बिरुद प्राप्त नहीं कर सकते ।।२३ ।। [ विशिष्टरचनालंकृत मणियों को रत्नावली बिरुद ] व्याख्यार्थ :- जब वे ही मणि यथोचित रचनाविशेषगर्भित क्रम से संकलित किये जाते हैं तब 'रत्नावलि' ऐसे विशेषण को प्राप्त कर लेते हैं और अपने अपने व्यक्ति-नाम का त्याग कर देते हैं। 30 'रत्नावली रत्नों से अनुविद्ध है और रत्न रत्नावलि से अनुविद्ध हैं' इस ढंग से अन्योन्य अनुविद्धस्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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