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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 'अदृष्ट्त्वात्' इति हेतुरसिद्धः । 'परिपूर्णवस्त्वनधिगन्तृत्वात्' इति हेतौ प्रतिज्ञाताथैकदेशाऽसिद्धिः, सिद्धसाध्यता च समुदायिनो दृष्टुत्वनिषेधे साध्ये। अथ तत्समुदायस्य दृष्टुत्वनिषेधः साध्या तदाऽध्यक्षविरोधः समुदायिव्यतिरिक्तस्यैकान्तेन समुदायस्याभावात् धर्मिणोऽप्रसिद्धिः सिद्धसाध्यता च ।।२१।।
न च समुदायाभावे नया एव परस्परव्यावृत्तस्वरूपा इति न क्वचित् सम्यक्त्वम्, नय-प्रमाणात्मकैकचैतन्य5 प्रतिपत्तेः, रत्नावलीवत् इत्याह
यद्वा 'यत् प्रत्येकं नयेषु न सम्यक्त्वम् तत् तेषां समुदायेऽपि न भवति यथा सिकतासु प्रत्येकमभवत् तैलं तासां समुदायेऽपि न भवति' इत्यत्र हेतोरनैकान्तिकताप्रतिपादनार्थमाह- जहणेयलक्खण इत्यादि(मूलम्-) जहऽणेयलक्खणगुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता ।
रयणावलिववएसं न लहंति महग्घमुल्ला वि ।।२२।। तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा ।
सम्मइंसणसदं सव्वे वि णया ण पावेंति ।।२३।। नय अर्थदर्शी नहीं है, जैसे एक एक जन्मांध जन दृष्टा न होने पर उन का समुदाय दृष्टा नहीं होता।
निरसन :- हम अदर्शी वचनसमूह में सम्यक्त्व का स्वीकार ही नहीं करते हैं और नय तो अपने विषय के परिच्छेदकारी यानी दृष्टा है, अतः नयों में 'अदृष्टृत्व' हेतु असिद्ध है। यदि 15 ‘परिपूर्णवस्तुअबोधकारित्व' को हेतु किया जाय तो तो सर्वथा-अदृष्टृत्व नहीं हुआ मतलब किंचिदर्थदृष्ट्त्व
प्रतिज्ञात अर्थ में रह जाने से, प्रतिज्ञार्थैकदेश से हेतु पुनः असिद्ध हो गया। तदुपरांत प्रश्न है कि १समुदायान्तर्गत एक नय में दृष्टृत्व का निषेध करना है या २उन के समुदाय में ? प्रथम पक्ष में सिद्धसाध्यता है क्योंकि हम समुदाय में ही अर्थदृष्ट्त्व मानते हैं न कि समुदायान्तर्गत एक नय में।
दूसरे पक्ष में प्रत्यक्ष विरोध है क्योंकि समुदाय में अर्थदृष्ट्रत्व प्रत्यक्षसिद्ध है। तथा, समुदायि (= समुदाय 20 का अवयव) एवं समुदाय में हम एकान्त भेद नहीं मानते, समूदायि से पृथक समुदाय न होने से
तथाविध समुदाय को पक्ष करेंगे तो पक्षासिद्धि दोष होगा। सिद्धसाध्यता दोष भी होगा, क्योंकि अतिरिक्त समुदाय (न होने से उस) में दृष्टुत्व को हम नहीं मानते।
[अनेकान्तवाद के समर्थन में रत्नमाला का दृष्टान्त ] अव० (१) - जब समुदायरूप धर्मी नहीं है तब शेष रहे परस्पर भिन्नस्वरूप नय। उन में 25 तो कहीं भी सम्यक्त्व नहीं। ऐसा नहीं है, क्योंकि नय-प्रमाण उभयात्मक एक चैतन्य रत्नावली की तरह अनुभवसिद्ध है - यही पदार्थ २२-२३-२४-२५ गाथाओं में प्रदर्शित करते हैं
अव० (२) - अथवा, 'प्रत्येक नयों में जो सम्यक्त्व नहीं है वह समदाय में भी नहीं. जैसे बालुकणों में एक एक में न रहने वाला तैल उन के समूह में भी नहीं होता' इस प्रयोग में 'प्रत्येकावृत्तित्व'
हेतु में साध्यद्रोह दोष का प्रदर्शन २२ आदि चार गाथाओं से किया जाता है30 गाथार्थ :- जैसे अनेक लक्षण एवं गुण वाले वेडूर्यादि पृथक् पृथक् मणीओं में, वे मूल्य से अति
महेंगे होने पर भी 'रत्नावली' संज्ञा (विशेषण) से लाभान्वित नहीं होते ।।२२।। उसी तरह, अपने
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