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________________ खण्ड-३, गाथा-२१ २७९ नयतेर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानस्य च परिच्छेदकत्वात्। न च परिच्छेदकत्वेऽपि प्रमाणता, समस्तनयविषयीकृतानेकान्तवस्तुग्राहकत्वेन ‘प्रकृष्टं मानं प्रमाणम्' 'इतरांशसव्यपेक्षस्वांशग्राही नयः' इति तत्स्वतत्त्वव्यवस्थितेः । न चानेकान्तात्मकवस्तुग्राहिणो नया (न?)भवन्ति, प्रत्येकं स्वविषयनियतत्वात् तेषाम् तद्व्यतिरिक्तस्य चान्यस्य तद्विषयस्याननुभवात्। प्रमाणाभावोऽपि न, आत्मनः कथञ्चित् तद्व्यतिरिक्तस्य प्रमाणत्वेनाऽनुभवसिद्धत्वात् तत्तन्नय- 5 विषयीकृताऽशेषवस्त्वंशात्मकैकद्रव्यग्राहकत्वस्य तत्र प्रतीतेः। न च संशयादिज्ञानैरात्मनः प्रमाणत्वेऽतिप्रसङ्गः, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमिणोतीति वा प्रमाणमिति 'प्र'शब्देन तस्य निरस्तत्वात् । न चात्मनः कर्तृत्वात् करणरूपप्रमाणताऽनुपपत्तिः, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकस्य तस्यानेकरूपत्वेन कर्तृ-करणभावाऽविरोधात्। एतेन 'प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयो नया: समुदिताः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते इत्यत्र न नयसमुदायोऽर्थदृष्टा प्रत्येकमदृष्टत्वात् जात्यन्धसमूहवत्' इत्येतन्निरस्तम्, अदृष्टतत्समूहस्य सम्यक्त्वानभ्युपगमात्, स्वविषयपरिच्छेदकत्वाच्च नयानाम् 10 है, जो गत्यर्थक धातु होते हैं वे सब ज्ञानार्थक भी होते हैं - यह सुविदित तथ्य है, ज्ञान कहो या परिच्छेद, एक ही बात है। परिच्छेदक हैं तो प्रमाण क्यों नहीं ? इस का उत्तर है व्युत्पत्तिभेद । 'प्रमाण' पद की व्युत्पत्ति है - 'प्रकृष्ट मान प्रमाण' है, प्रकृष्ट यानी समस्त नयों के द्वारा विभिन्न अंशों से विषयी कृत अनेकान्तात्मक वस्तु का वह ग्राहक है - इस को प्रमाण कहा जाता है। नय की व्युत्पत्ति है - अन्य अंश से सापेक्ष रह कर अपने अभिप्रेत अंश का ग्राहक नय है। इस प्रकार 15 दोनों का अपना अपना तत्त्व (= तात्पर्य) भिन्नरूप से व्यवस्थित हैं। यदि कहें कि 'नय अंशग्राही होने पर भी अनेकान्तात्मक वस्तु के ग्राहक हैं' - तो ऐसा नहीं है, प्रत्येक नय अपने अपने अंशभूत विषय के ग्रहण में नियत होते हैं, उन से (अनेकान्तात्मक वस्तु के अंशों से) पृथक् और कोई उन का विषय अनुभवारूढ नहीं हैं। अतः अनेकान्तवस्तुग्राही नहीं है। [ प्रमाणलोप-आपत्ति का निरसन ] 20 प्रमाणभावप्रसक्ति भी निरवकाश है, क्योंकि नयबोध से कथंचिद् विभिन्न आत्मा की प्रमाणता अनुभवसिद्ध है। तत्तद् नय के विषयीभूत समस्त वस्तु-अंशात्मक एक द्रव्य के ग्राहकरूप में प्रमाणरूप से आत्मा प्रतीत होता है। यदि आत्मा को ही प्रमाण मानेंगे तो संशय-विपर्ययादि ज्ञान के काल में भी प्रमाणत्व का अतिप्रसङग होगा' - ऐसा मत कहना क्योंकि 'प्र' उपसर्ग का प्रयोग उस का निवारक है – 'प्रमिति जिस से हो' अथवा 'जो प्रमिति करे' वह प्रमाण है - इन व्युत्पत्तिओं में 25 'प्र' शब्द संशयादि का निवारण करने के लिये ही प्रयुक्त है। यदि कहें कि - ‘आत्मा तो प्रमिति का कर्ता है अतः उस में करणार्थकव्युत्पत्ति से प्राप्त प्रमाणता संगत नहीं होगी।' - तो यह उचित नहीं, क्योंकि आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने से एकान्त कर्तारूप नहीं है, कथंचित् करणरूप भी होने में कोई विरोध नहीं। [ नयसमुदाय में अर्थदर्शित्व निषेध का निरसन ] शंका :- प्रत्येक नय मिथ्यादृष्टि है किन्तु समुदित हो कर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं ऐसा कहा जाता है किन्तु उस के सामने यह एक अनुमान है - नयसमुदाय अर्थदर्शी नहीं है क्योंकि प्रत्येक 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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