SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-३, गाथा-२६ २८३ 10 तेनापि तत्रानेकान्तव्यवहारः।।२५।। दृष्टान्तगुणप्रतिपादनायाह(मूलम्-) लोइय-परिच्छयसुहो निच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य। अह पण्णवणाविसउ त्ति तेण वीसत्थमुवणीओ।।२६।। व्युत्पत्तिविकल-तद्युक्तप्राणिसमूहसुखग्राह्यत्वम् एकानेकात्मकभावविषयवचोऽवगमजनकत्वं च अथ 5 इत्यवधारणार्थः अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्ररूपकवाक्यविषयत्वं दृष्टान्तस्यैव। एतैः कारणे शङ्काव्यवच्छेदेन अयमुपदर्शित इति गाथातात्पर्यार्थः। न चावल्यवस्थायाः प्राग् उत्तरकालं च रत्नानां पृथगुपलम्भाद् इह च सर्वदा तथोपलम्भाभावाद् विषममुदाहरणमिति वक्तव्यम्, आवल्यवस्थाया उदाहरणत्वेनोपन्यासात्। न च दृष्टान्त-दान्तिकयोः सर्वथा साम्यम् तत्र तद्भावानुपपत्तेः ।।२६।। (१) रत्नादिकारणेष्वावल्यादिकार्यं सदेव - इति साङ्ख्याः । इस दृष्टान्त से अनेकान्तव्यवहार अच्छी तरह प्रवृत्त होता है ।।२५ ।। [ रत्नावली दृष्टान्त प्रदर्शन के विविध हेतु ] अव० :- दृष्टान्त के गुण का प्रतिपादन करते कहते हैं - गाथार्थ :- लौकिक और परीक्षकों के लिये सुखद, निश्चय वचन ग्रहण का उपायभूत, तथा 15 प्ररूपणाविषय है इसीलिये विश्वस्ततया प्रदर्शित किया है।।२६ ।। व्याख्यार्थ :- लौकिक यानी अव्युत्पन्न और परीक्षक यानी व्युत्पन्न दोनों प्रकार के जनसमुदाय के लिये दृष्टान्त सरलता से सुखद यानी बोधकारक बनता है। निश्चयवचनप्रतिपत्ति यानी एकानेकात्मक वस्तुविषयक वचनजन्य बोध का उपायभूत दृष्टान्त है। तथा, दृष्टान्त अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्ररूपणाकारक वचन का निर्देश्य है। इसी लिये शंका दूर करने हेतु दृष्टान्त का प्रदर्शन किया जाता है - यह 20 गाथा का तात्पर्यार्थ है।। शंका :- उदाहरण में प्रस्तुत साध्य का साम्य होना चाहिये, यहाँ तो साम्य के बदले वैषम्य है। कारण :- रत्नावली अवस्था के पहले सब मणी पृथक् दृष्टिगोचर होते हैं। जब रत्नावली का धागा निकाल दिया या तूट गया तो पश्चात् भी सब मणी पृथग् दृष्टिगोचर होते हैं। जब कि आप तो यह दिखा रहे हो कि सदा के लिये नयसमुदायरूप अनेकान्त होता है, कभी भी पृथग् नय दृष्टिगोचर 25 नहीं हो सकता। समाधान :- समझीये जी ! हमने पूर्व-मध्य-उत्तर तीनों अवस्था वाले रत्न समुदाय को दृष्टान्त नहीं किया, सिर्फ मध्य अवस्था में जो रत्नावली है उस को ही हमने दृष्टान्त किया है। दृष्टान्त और तद्बोध्य अर्थ में सर्व प्रकार से साम्य कभी नहीं होता, सर्वथा साम्य ढूँढेंगे तो कोई दृष्टान्त ही नहीं बन सकेगा, क्योंकि सभी भावों में कुछ न कुछ वैषम्य तो रहता ही है।।२६।। 30 अव० - (१) सांख्यों का मत है कि मालादि कार्य रत्नों में पहले से सत् = विद्यमान होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy