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________________ 5 खण्ड-३, गाथा-७ २४१ वज्र-किरीटादिधारणवर्तमानपर्यायेणेन्द्रादिरूपतया वस्तुनो भवनम्, तद्ग्रहणपर्यायेण वा ज्ञानस्य भवनम् । यथा चाऽयं पर्यायार्थिकप्ररूपणा तथा प्रदर्शित एव प्राक् न पुनरुच्यते । एष एव नय-निक्षेपानुयोगप्रतिपादित उभयनयप्रविभाग: परमार्थः = परमं हृदयम् आगमस्य, एतदव्यतिरिक्तविषयत्वात् सर्वनयवादानाम्। न हि शास्त्रपरमहृदयनयद्वयव्यतिरिक्तः कश्चिद् नयो विद्यते सामान्य-विशेषस्वरूपविषयद्वयव्यतिरिक्तविषयान्तराभावाद् विषयिणोऽप्यपरस्य नयान्तरस्याभाव इति प्राक् प्रतिपादितमिति ।।६।। एतदपि नयद्वयं शास्त्रस्य परमहृदयं 'द्रव्यं पर्यायाऽशून्यं पर्यायाश्च द्रव्याऽविरहिणः' इत्येवं भूतार्थप्रतिपादनपरम् नान्यथेत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थमाह(मूलम्) पज्जवणिस्सामण्णं वयणं दवट्ठियस्स ‘अत्थि'त्ति । अवसेसो वयणविही पज्जवभयणा सपडिवक्खो।।७।। पर्याय रूप से (तद् तद् द्रव्यों का) उद्भव 'भाव' कहा जाता है (भवति इति भावः ।) यहाँ ‘विभाषा 10 ग्रहः' इस सूत्र द्वारा 'भवतेश्च' इस काशिका वृत्तिकथन से कुछ पंडितों को 'भू' धातु से 'ण' प्रत्यय विधान मान्य है अतः 'भाव' शब्द निष्पन्न होता है। अथवा 'भू' धातु से भाव अर्थ में 'अण्' प्रत्यय से भी 'भाव' शब्द बनता है 'भूतिः = भावः'। इस रीति से निष्पन्न 'भाव' शब्द का मतलब है कि मुगुट आदि धारण स्वरूप वर्तमान इन्द्रादिपर्यायरूप से वस्तु का भवन (= परिणमन)। अथवा तथाविध इन्द्रपर्यायग्रहणात्मक पर्याय में परिणत ज्ञान का जो भवन है वही (इन्द्र का) 'भाव' निक्षेप 15 है। ये दोनों प्रकार के भाव पर्यायार्थिकनयप्ररूपणान्तर्निहित ही है यह पहले दिखाया है, पुनरुक्ति नहीं करते। यही नयगर्भितनिक्षेप के अनुयोग (= व्याख्यान) में निरूपित उभयनय प्रविभाग परमार्थ है। यहाँ ‘परमार्थ' शब्द का अर्थ है आगम का परम हृदय (तात्पर्य), क्योंकि सकल नयवादों का विषय इस नय द्वन्द्व से पृथक् नहीं है। शास्त्रों के परम हृदयभूत नयद्वन्द्व से अधिक कोई नय कहीं भी नहीं है, क्योंकि सामान्य एवं विशेष रूप विषयद्वन्द्व से अधिक कोई अन्य विषय दुनिया में नहीं 20 है। अत एव तद्ग्राहक कोई अन्य (तृतीय) नय भी नहीं है यह पहले भी कहा जा चुका है। [ द्वि०काण्ड गाथा-६ विवरण समाप्त ] विशेषार्थी चार नक्षेपो के अधिक भेद-प्रभेद विवेचन के लिये श्री अनुयोगद्वार सूत्र में ‘आवश्यक' एवं 'सुअ' (श्रुत) शब्द के नामादि चार निक्षेपों को सूत्र १० से ५० के मध्य देख सकते हैं।) * [ मीलित द्रव्य-पर्याय बोधक उभय नय ही शास्त्रहृदय ] ____ यह जो नयद्वन्द्व शास्त्रों का परम हृदय कहा गया है वह भी इसलिये कि 'द्रव्य पर्यायविहीन कभी नहीं होता और पर्याय कभी द्रव्यविहीन नहीं होते' इस प्रकार द्रव्य-पर्याय की सापेक्ष प्ररूपणा करते हो तभी वह परमहृदय है, अन्यथा एकान्ततः द्रव्य-पर्याय को निरपेक्ष दिखानेवाले नय कभी परमहृदय नहीं हो सकते - इस तथ्य का सातवीं गाथा से दिवाकर सूरि निरूपण करते हैं - गाथार्थ :- ‘अस्ति' ऐसा वचन पर्यायसामान्यविहीन द्रव्यास्तिक का है, सप्रतिपक्ष शेष वचनप्रयोग 30 पर्यायोपासना स्वरूप है।।७।। 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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