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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ परस्परनिरपेक्षस्य नयद्वयस्य प्रत्येकमेवं वचनविधिः - द्रव्यास्तिकस्याऽननुषक्तविशेषं वचनम् 'अस्ति' इत्येतावन्मात्रम्, पर्यायास्तिकस्य त्वपरामृष्टसत्तास्वभावं 'द्रव्यम्' 'पृथिवी' 'घट' 'शुक्लः' इत्याद्याश्रितपर्यायम् । परस्परनिरपेक्षं चोभयनयवचोऽसदेव, वचनार्थाऽसत्त्वात् । वचनमसदर्थमिति तदर्थस्याप्यसत्त्वमावेदितं भवतीति समुदायार्थः । 5 २४२ अवयवार्थस्तु - पर्यायनयेन सह नि:सामान्यम् असाधारणं वचनम् द्रव्यास्तिकस्य 'अस्ति' इति एतत्, भेदवाद्यभ्युपगतस्य विशेषस्य सत्तारूपतानुप्रवेशात् । एतच्च वचो निर्विषयम्, निर्विशेषत्वात् वियत्कुसुमाभिधानवत् 'निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्' (श्लो० वा० आकृति० श्लो० १० ) इति प्रसाधितत्वाद् नाऽव्याप्तिर्हेतोः । असिद्धिः पराभ्युपगमादेव परिहृता । तन्नैकान्तभावनाप्रवृत्तस्य द्रव्यास्तिकन यस्य परमार्थता। पर्यायास्तिकस्याप्येवंप्रवृत्तस्य न सेति पश्चार्धेन प्रतिपादयति - अवशेष इति शेषः, स चोपयुक्तादन्यः 10 वचनविधिः = वचनभेद: सत्ताविकलविशेषप्रतिपादकः पर्यायेषु सत्ताव्यतिरिक्तेष्वसत्सु भजनात् = सत्ताया आरोपणात् सप्रतिपक्षः इति सतः प्रतिपक्षः = विरोधी असन् भवति । तथाहि - पर्यायप्रतिपादको वचनविधिरवस्तुविषयः, निःसामान्यत्वात् खपुष्पवत् । भावना तु द्रव्यार्थिकवचनविपर्ययेण प्रयोगस्य कार्या। = व्याख्यार्थ :- परस्पर निरपेक्ष दोनों नयों का एक एक वचनप्रयोग इस तरह है – विशेषानुषङ्गविनिर्मुक्त द्रव्यास्तिक का वचन 'अस्ति' इतना ही होता है । पर्यायास्तिक मत सत्तासामान्य की उपेक्षा कर के 'द्रव्य' 15 अथवा 'पृथिवी' अथवा 'घट' अथवा 'श्वेत' इस प्रकार पर्यायाश्रित ही होता है । ऐसा जो परस्परनिरपेक्ष वह जूठा है क्योंकि उक्तवचनप्रतिपाद्य अर्थ असत् है । वचन असत्यार्थक कह भी असत्यता निवेदित हो जाती है । यह गाथा का समुदितार्थकथन है । [ सातवीं गाथा के पदों का शब्दार्थ ] उभय नय का वचनप्रयोग है देने से वचनवाच्य अर्थ की गाथा के अवयवों का अर्थ : पर्यायनय के साथ समानता से रहित यानी असाधारण ( = स्वतन्त्र ) 20 ऐसा वचन है द्रव्यास्तिक को मान्य 'अस्ति' (= सत् है), क्योंकि द्रव्यास्तिक नय के मान्य सत्तास्वरूप में भेदवादी (पर्यायवादी) मान्य विशेष के अनुप्रवेश को अवकाश नहीं है। द्रव्यास्तिकनय का यह वचन विषयबाह्य (निरर्थक) है क्योंकि विशेषमुक्त है जैसे 'गगनपुष्प' नाम । श्लोकवार्त्तिक में कहा कि ‘विशेषरहित सामान्य शशसींग तुल्य है ।' इस कथन से निर्विशेषत्व हेतु की पुष्टि होने से अव्याप्ति दोष नहीं है । असिद्धि दोष भी नहीं है क्योंकि द्रव्यास्तिकनय (एकान्त) 25 ने स्वयं विशेष का बहिष्कार किया है । सारांश, एकान्तवासना प्रवृत्त यह द्रव्यास्तिक नय पारमार्थिक नहीं । गाथा के उत्तरार्ध से यह सूचित करना है कि एकान्तवासना से प्रवृत्त पर्यायास्तिक नय भी पारमार्थिक नहीं। देखिये अवशेष यानी शेष, मतलब द्रव्यास्तिकवचन से भिन्न जितने भी सत्ताशून्य विशेष के निरूपक वचनप्रकार हैं वे पर्यायों में यानी सत्ताशून्य असत् व्यक्तियों में सत्ता का भजन यानी आरोपण कर देने से प्रतिपक्षयुक्त (यानी विरोधयुक्त) हैं, अर्थात् सत् के विरोधी होने से उक्त 30 वचन प्रकार असत् हैं। प्रयोग देखिये पर्यायनिरूपक वचनप्रकार वस्तुविषयक (वस्तुस्पर्शी) नहीं, क्योंकि सामान्यविकल है जैसे गगनपुष्प । इस प्रयोग का भावार्थ, उपरोक्त द्रव्यार्थिकवचन के लिये किये गये प्रयोग से विपरीत, समझ लेना । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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