SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ च संवृत्ति सत एकता घटादेः न तस्य जन्यता, विज्ञानमपि विषयाऽऽलोकमनस्कारादिसामग्रीप्रभवं नैकं युक्तम् । नापि तद् एकरूपमभ्युपगम्यते ग्राह्य-ग्राहकाकारद्वयस्य तस्य संवेदनात् । __न चैकस्य रूपद्वयं बोधाऽबोधरूपमुपपन्नम्। तथाहि- अहंकारास्पदः सुखादिरूपो ग्राहकाकारः अन्तस्तद्वैपरीत्येन च ग्राह्याकारोऽपरः एव प्रतिभाति, तथा च स्वसंवेदनसिद्धभेदत्वात् रूप-रसयोरिव 5 तयोर्नेकत्वम् । अथानयोर्भेदावभासो भिन्नयोरिव न पुनर्भिन्नयोरेव । तदुक्तम्- ‘ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते' [प्र.वा.२/३५४] इति। नैतदेवम्, बाह्यार्थवादत्यागप्रसक्तेः, सौत्रान्तिकमतस्य वैभाषिकमतस्य चात्र विचारयितुं प्रक्रान्तत्वात् ज्ञानवादस्य च निषेत्स्यमानत्वात् । न च ग्राह्य ग्राहकाकारयोः संवृतत्वम्, स्वकारणान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् । ग्राहकाकारो हि बोधरूपतया समनन्तरप्रत्ययान्वय-व्यतिरेकानुविधायी, विषया कारोऽपि विषयस्यान्वय-व्यतिरेकावनुविधत्ते । एवं च रूप-रसादेरिव नानयोरेकता। न च निराकारमभिन्न10 होती। तथा, बौद्धमत में जो काल्पनिक-सत् घटादि का एकत्व यद्यपि स्वीकृत है किन्तु वहाँ घटादि कार्य सत् नहीं है। नीलादि विषय, आलोक, अन्तःकरण (मन) आदि सामग्री से जन्य विज्ञान का भी एकत्व युक्तिसिद्ध नहीं है। विज्ञान के भी ग्राह्य-ग्राहक दो आकार संवेदन सिद्ध होने से वह भी एकरूप नहीं माना जा सकता। [ अनेक से अनेक का सृजन-चौथा विकल्प सदोष ] एक वस्तु में बोध (ग्राहक) और अबोध (ग्राह्य) ये दो आकार (= दो रूप) युक्ति घटित नहीं 15 होते। देख लो - ग्राहकाकार भीतर में अहंकारमय एवं सुखादिर ग्राह्य (नीलादि) आकार उलटा ही प्रतीत होता है। फलतः रूप-रस के भेद की तरह ग्राह्य ग्राहक आकारों में भेद स्वसंवेदनसिद्ध होने से उन में एकत्व नहीं हो सकता। शंका :- ग्राह्य-ग्राहक में जो भेदप्रतिभास होता है उसे मानों कि भिन्न हो - इस प्रकार से जरूर होता है, किन्तु वस्तुतः भिन्न का ही हो - ऐसा नहीं है। कहा भी है [ ] ग्राह्य-ग्राहक संवेदन में 'परस्पर भिन्न हो' ऐसा लक्षित होता है। उत्तर 20 :- ऐसा नहीं है। यदि ग्राह्य-ग्राहक आकार वास्तव में भिन्न नहीं है तो सिर्फ ग्राहकाकार ही फलतः सिद्ध होने से बाह्यार्थ का परित्याग प्राप्त होगा। विज्ञानवादी भले यहाँ इष्टापत्ति कर ले, किन्तु प्रस्तुत में सौत्रान्तिक-वैभाषिक दो मतों की बात चल रही है, उन में तो बाह्यार्थ-परित्याग की आपत्ति आ कर रहेगी। तथा आगे चल कर इष्टापत्ति कर लेनेवाले विज्ञानवाद का भी निरसन किया जानेवाला है। [ ग्राह्य-ग्राहक आकार काल्पनिक नहीं ] 25 तथा, ग्राह्य-ग्राहक आकारों में शून्यवादी यहाँ ग्राह्य-ग्राहक आकारों को काल्पनिक नहीं कह सकता, क्योंकि ये दोनों कार्यभूत आकार कारणों के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करनेवाले हैं। देख लो - ग्राहकाकार बोधात्मक स्वरूप से अपने पूर्वकालीन समनन्तरप्रत्यय के अन्वयव्यतिरेक के अनुगामी हैं और विषय (ग्राह्य) आकार विषय नीलादि के अन्वय-व्यतिरेक के अनुगामी हैं, अतः रूप-रस आदि 7. अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मविपर्यासितदर्शनैः - इत्यस्य पूर्वार्धः प्रमाणवार्तिके। मनोरथनन्दिटीकायाम् - परमार्थतोऽविभागो = भेदरहितोऽपि बुध्यात्मद्वयवासनया विपर्यासितं = विभागेनोपदर्शितं दर्शनं येषां तैः = अतत्त्वदर्शिपुरुषैाह्य-ग्राहकसंवित्तीनां परस्परं भेदः तद्वानिव लक्ष्यते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy