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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २०७ विषये निश्चितत्वात् । [?? न च मूलबाधकत्वेनानुमानस्यानुभव आशङ्कनीयः प्रत्यक्षाभासस्य कस्यचिद् बाधनात् उत्पलपत्रशतव्यतिभेदाद्यध्यक्षबाधकत्वेनानुमानस्य प्रवृत्तावपि यतो नोच्छेदः एवमत्रापि इति न कश्चिद्दोषः, अत एव सर्वत्र प्रत्यक्षं विरोधि बाधकमनुमानं तु तद्विरोधाद् बाध्यमेवेति नियमाभावाद् निराकृतम्। ??] इतरेतराश्रयत्वमपि नात्राऽऽशंकनीयम् - प्रत्यक्षाभासत्वेऽनुमानं बाधकम् अनुमानप्रामाण्यात् प्रत्यक्षस्याभासतेति - यस्मानानुमानप्रामाण्यमध्येक्षाभासनिबन्धनम् किन्तु प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणनिमित्तं 5 तत्प्रामाण्यमिति कुत इतरेतराश्रयत्वम् ? ____ असदेतत्- यतो यद्यपि परिच्छिद्यमानस्य वस्तुनः पूर्वकालताऽपि निश्चीयते तथापि नाऽवस्तुधर्मग्राहकमध्यक्षमिति कथं तद्विषयस्य यथाप्रतीत्यसम्भवः ? तथाहि - तस्य पूर्वकालसम्बन्धिता स्वरूपेण गृह्यते नेदानीन्तनसम्बन्धितानुप्रवेशेन । तेनेदानीं यद्यपि कुतश्चिनिमित्तात् तस्य पूर्वकालादित्वमवसीयते तथापि- तद्ग्राहकमध्यक्षं कथं न वस्तुग्राहकमिति कुतः तस्याऽप्रामाण्यम् ? यदि ह्यविद्यमानं पूर्वकालादित्वम् 10 विद्यमानं वा वर्तमानारोपेणाध्यक्षमध्यवस्येत् तदा भवेदस्याऽयथार्थग्राहित्वादप्रामाण्यम्, एतच्च नास्तीति करना दुःशक है, यहाँ स्थानाशून्यार्थ किञ्चित् प्रयास करते हैं) आशंका नहीं करना कि अनुभव ही अनुमान के मूलभूत (प्रतिबन्ध) का बाधक है। कभी-कभी शतकमलपत्रों का नुकीले सूर्य से एकसाथ भेदन हो जाने के प्रत्यक्ष का अनुमान से बाध होता है अतः वह प्रत्यक्षाभास ठहरता है। अतः अनुमान-प्रमाणता का यहाँ उच्छेद नहीं होता, इसी तरह नित्यतादर्शन का भी अनुमान से बाध होने 15 में कोई दोष नहीं। यही कारण है कि 'सर्वत्र प्रत्यक्ष ही विरोधि या बाधक होता है और अनुमान प्रत्यक्ष के विरोध से बाधित होता है' ऐसा नियम न बन सकने से, अनुमान की बाध्यता का निराकरण हो जाता है। यहाँ अन्योन्याश्रय दोष कल्पना भी निरवकाश है। “पहले प्रत्यक्ष 'आभास' सिद्ध होगा तब अनुमान बाधक बनेगा, दूसरी ओर अनुमान ‘प्रमाण' सिद्ध होने पर प्रत्यक्ष की आभासता निश्चित होगी” ऐसी 20 आशंका इस लिये निरवकाश है कि अनुमान का प्रामाण्य (या बाधकत्व) प्रत्यक्षाभासतामूलक नहीं । अविनाभावरूप प्रतिबन्ध के साधकप्रमाण पर निर्भर होता है, फिर यहाँ अन्योन्याश्रय रहेगा कैसे ? (पूर्वपक्ष समाप्त) [ नित्यतावादी कृत क्षणिकवाद-प्रतिकार ] ___ यह पूरा क्षणिकवादी का पूर्वपक्ष गलत है। ज्ञायमान वस्तु की यद्यपि प्रत्यक्ष से वर्तमानकालता 25 के साथ पूर्वकालता भी गृहीत होती है, तथापि इतने मात्र से प्रत्यक्ष में अवस्तुधर्मग्राहकता नहीं है, फिर उस के विषय में वस्तुअनुरूप प्रतीति का असम्भव कैसे ? देखिये - प्रत्यक्ष में जो पूर्वकालसम्बन्धिता गृहीत होती है वह (रजत में रजतत्व की तरह) अपने सच्चे रूप से ही गृहीत होती है न कि तदनुप्रविष्ट वर्तमानकालसम्बन्धितारूप से। अतः किसी भी निमित्त से, यद्यपि प्रत्यक्ष में पूर्वकालादिता भासित होती है, किन्तु वह सत्य होने से उस का ग्राहक प्रत्यक्ष असत्यवस्तु का नहीं सत्य धर्म 30 का ही ग्राहक है फिर वह अप्रमाण कैसे ? यदि नित्य वस्तु में पूर्वकालीनतादि अविद्यमान हो, अथवा विद्यमान होने पर भी अन्यरूप से यानी आरोपित वर्तमानरूप से प्रत्यक्षविषय बनती हो तब तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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