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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ २०६ तस्योच्यते। अत एवानुमानस्य प्रामाण्यमपाकुर्वता तत् प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणस्याऽप्रामाण्यमुपदर्शनीयम् । यतः प्रतिबन्धाऽसिद्धितोऽनुमानं प्रामाण्यादपाक्रियेत । तथा चोक्तं न्यायविदा - 'लक्षणयुक्ते बाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात्” [ ] इति। नित्यताप्रसाधकस्य त्वध्यक्षस्यास्तामनुमानेन तुल्यकक्षत्वम्, तत्प्रतिबन्धप्रसाधकेनाप्यतुल्यकक्षतेव । 5 तथाहि— क्षणक्षयविपरीतनित्यत्वलक्षणार्थमन्तरेणानुपजायमानमध्यक्षं तथाभूतमर्थं व्यवस्थापयत् क्षणिकत्वानुमानबाधकमुच्यते न चाध्यक्षा (क्षेण स्वा) वसेयं नित्यत्वं वस्तुनो व्यवस्थापयितुं शक्यम् यतः पूर्वापरकालताविष्टमध्यक्षावसेयम् तच्च न वस्तुधर्मः । वर्त्तमानकालं हि वस्तु, पूर्वापरकालभावित्वं च वर्त्तमानवस्तुविरुद्धत्वात् न तद्धर्मत्वेनावस्थापयितुं युक्तम् इति प्रत्यभिज्ञाप्रमेयस्य यथाप्रतीत्यसम्भवात् बाधकप्रमाणेनाप्यतुल्यकक्षत्वात्तद्ग्राहिणोऽध्यक्षस्य कुतः क्षणक्षयानुमानबाधकता ? विपर्ययस्य प्रमाणेनाऽत्र 10 नहीं हो सकता। देख लो (क्षणिकतादिप्रदर्शक) अनुमिति की प्रवृत्ति प्रतिबन्धग्रहणमूलक ही होती है। प्रतिबन्ध (व्याप्ति) ग्रहण का मतलब है ' साध्य के बिना साधन का न रहना' ऐसा ज्ञान । इसी को हम ‘अनन्यथासिद्धत्व' कहते हैं। जिस को भी अनुमानप्रामाण्य का निषेध करना हो उस का कर्त्तव्य है कि वह प्रतिबन्ध (उक्त व्यतिरेकव्याप्ति) के साधक प्रमाण के अप्रामाण्य का खण्डन कर दिखावे, जिससे कि प्रतिबन्धनिरसन के द्वारा अनुमानप्रामाण्य का निरसन किया जा सके। न्यायवेत्ता ( धर्मकीर्त्ति ? ) 15 ने कहा है कि “ ( अगर आप ) लक्षणयुक्त में बाधा का सम्भव ( दिखाना चाहते ) हैं तो ( आप को ) लक्षण ही दूषित करना होगा ।" इति । प्रस्तुत में नित्यतासाधक प्रत्यक्ष और क्षणिकतासाधक अनुमान दोनों में तुल्यबलत्व की बात तो दूर, उक्त प्रतिबन्ध (सत्त्व - क्षणिकत्व व्याप्ति) साधक प्रमाण से भी तुल्यबलत्व नहीं है (क्षणिकवादीकथन चालु है ।) 20 - - [ अनुमान की बाधकता बलवती - पूर्वपक्ष चालु ] असमानता इस प्रकार :- आप कहते हैं, क्षणिकता से विपरीत नित्यत्वात्मक पदार्थ के बिना उस का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, अतः वस्तु की नित्यता को प्रकाशित - स्थापित करनेवाला प्रत्यक्ष क्षणिकत्व अनुमान का बाधक बनेगा। अब वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्यक्ष वस्तु की नित्यता की स्थापना कर सके यह असंभव है। कारण :- नित्यता यानी त्रिकाल सम्बन्ध, प्रत्यक्ष भूत-भविष्य को यानी 25 पूर्वापरकाल को भी ग्रहण करेगा, किन्तु वस्तु हरहमेश वर्त्तमानकालीन ही होती है उस में पूर्वापरकालीनता जैसा कोई वास्तव धर्म होता नहीं, क्योंकि वर्त्तमानकालता के साथ उसका विरोध है, अतः पूर्वापरकालता को वर्त्तमानवस्तु के धर्म-रूप में निश्चित करना अयुक्त है । प्रत्यभिज्ञा का विषय है पूर्वापरकालता, किन्तु प्रतीति ( जो वर्त्तमानकालता की होती है) के अनुरूप सम्भव न होने से बाधकप्रमाण ( = अनुमान) से समानबलवती नहीं हो सकती। फिर उस ( प्रत्यभिज्ञा के ) विषय का ग्राहक प्रत्यक्ष क्षणिकता अनुमान 30 का बाधक कैसे हो सकता है ? प्रत्यभिज्ञाविषय है नित्यता, उस से विपरीत है क्षणिकता, उस का निश्चय बाधक अनुमान प्रमाण से निश्चित हो जाता है । ( पूर्वपक्ष चालु है ) ( न च मूल... से ले कर निराकृतम् ... यहाँ तक ( पृ०२०७) पाठ अशुद्ध होने से सम्यक् विवेचन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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