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________________ 10 - खण्ड-३, गाथा-६ २०३ न च (ननु) लून-पुनर्जातकेशादिष्वपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानोदया(त्) स्थायिताप्रतिपत्तिः सर्वत्रालीका। न, दृष्टान्तमात्रादर्थसिद्धेरभावात्, अन्यथा हेतूपन्यासस्य वैफल्यापत्तेः। हेतूपयोगितयैव निदर्शनस्य परैः साफल्याभ्युपगमात् । आह च ‘स एवाऽविनाभावो दृष्टान्ताभ्यां दर्शाते' [ ] इति। यद्वा लूनपुनर्जातशिरसिजादिष्वपि प्रत्यभिज्ञानादेकता भवतु। 'अप्रध्वस्तः केशादिः कथं प्रत्यभिज्ञायते ?' नन्वेवं ध्वस्तेऽपि शिरोरुहनिकरादौ समानम् । अथाऽध्वस्ते तत्र पुनर्दर्शनात् ‘त एवामी केशाः' इत्येकताप्रतीत्यनुभवात् 5 प्रत्यभिज्ञानम्, ननु ध्वस्तेष्वपि तेषु पुनदर्शनात् तुल्यप्रमाणादियोगेष्वेकताप्रतिपत्तिदर्शनात् कथं न प्रत्यभिज्ञानम् ? तस्माद् ध्वस्तोदितेष्वपि शिरसिजादिषु प्रत्यभिज्ञानादेकत्वं कस्यचिद् रूपस्याभ्युपगन्तव्यम् । अथ दलिताध्यवसायि प्रत्यय: स्थायिताध्यवसायिनी प्रत्यभिज्ञां बाधत इति न तेष्वेकता। न, भिन्नकालेन दलितकेशाध्यवसायिप्रत्ययेन प्रत्यभिज्ञाया बाधाऽयोगात्। अथवा लुनपुनर्जातकेशनखादिभेदाभेदाध्यवसायादुभयतैवाऽस्तु स्तम्भादिषु तु विशददर्शनावभासिषु क्षणक्षयविकला स्थायिता प्रतिभातीति तेषां स्थिररूपतैवास्तु। [प्रत्यभिज्ञाप्रदर्शित स्थायित्व के प्रति शंका-समाधान ] शंका :- काटने के बाद पुनरुत्पन्न केशादि के विषय में 'ये तो वही हैं' ऐसी प्रत्यभिज्ञा का उदय होता है जो स्थायित्व प्रदर्शित करती है किन्तु वह जैसे भ्रम है वैसे अन्यत्र भी स्थायित्व का भान भ्रम ही समझना चाहिये । उत्तर :- नहीं, सिर्फ दृष्टान्त कह देने से साध्यार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती, अन्यथा अनुमान 15 के लिये हेतु-प्रदर्शन निष्फल हो जायेगा, क्योंकि आप लोग तो यह मानते है कि दृष्टान्त तो हेतु की पुष्टि के लिये ही दिये जाने पर सफल बनता है। कहा भी है - वही अविनाभाव दो प्रकार के (साधर्म्यवैधर्म्य) दृष्टान्तों से दिखाया जाता है। अथवा कह सकते हैं कि प्रत्यभिज्ञा के बल पर काटे गये पुनरुत्पन्न केशादि में एकत्व (यानी स्थायित्व) होता है। यदि पूछे कि – यह केशादि (एक ही है स्थायी है) अविनष्ट है ऐसा बोध प्रत्यभिज्ञा से क्यों कर होगा ? – जवाब भी प्रतिप्रश्नरूप है कि विनष्ट (पुनरुत्पन्न) 20 केशादि गुच्छ के बारे में भी प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी ? यदि कहें कि अविनष्ट केशादि का तो पुनःदर्शन होने के कारण 'वे ही ये केश हैं' ऐसी एकताप्रतीति का अनुभव होने से प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। - तो विनष्ट केशादि प्रति भी प्रमाणादि का सामग्रीयोग तुल्य रहने पर एकता का बोध दिखता है इस लिये प्रत्यभिज्ञा क्यों नहीं होगी ? अत एव नष्ट पुनरुत्पन्न केशादि के प्रति प्रत्यभिज्ञा होने से, पूर्वोत्तर केशों में किसी एक (केशत्वादि सामान्य) रूप का एकत्व स्वीकारना पडेगा। 25 शंका :- नष्टतानिश्चायक प्रतीति स्थायित्वनिश्चायक प्रत्यभिज्ञा को बाध करेगी, अतः एकता संभव नहीं - उत्तर :- नहीं, भिन्नकालीन नष्टताप्रतीति स्थायित्वबोधक प्रत्यभिज्ञा की बाधक नहीं बन सकती। अथवा मान सकते हैं कि भेदाध्यवसायी निश्चय और अभेदाध्यवसायिनी प्रत्यभिज्ञा तुल्यबल होने से नष्ट पुनरुत्पन्न केश-नखादि में भिन्नाभिन्नता अथवा एकानेकता उभय होना चाहिये। यह केश-नखादि की बात हुई, लेकिन स्तम्भादि के लिये क्या मानेंगे ? वहाँ तो (नष्टता ही नहीं है) नष्टताप्रतीति 30 है नहीं, स्पष्टदर्शनभासमान स्तम्भादि में स्थायित्व ही भासित होता है, अतः उन में तो स्थायित्व का स्वीकार करना ही पडेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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