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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २०१ 10 भवति' इति चेत् ? नन्वसत् कथं भवतीति समानम् । ___ अथ प्राग् घटादिकमसत् ‘सद्' भवत्युत्पत्तिसमये इत्यविरुद्धम् । नन्वन्यदा घटः सन् कपालीभवति इत्यविरुद्धमेव । कथं तस्यैव तदन्यत्वमिति चेत् ? यथा संवेदनस्यैकस्य ग्राह्य-ग्राहकाद्याकारभेदः, यथा ह्य(न्य)रूपेणानेकमेकं भवन्न विरुध्यते इत्यसकृदावेदितम् तेन निवृत्तिः कारणस्य कार्यात्मना परिणतिरेवाभिधीयते। तथा च घटप्रच्युतेः कपालस्वरूपत्वे कुतः क्षणिकत्वम् ? 5 अथ भावान्तरं घट-कपालव्यतिरिक्तं घटप्रच्युतिः। नन्वेवमपि तेन सह घटस्य युगपदवस्थानाधविरोधात् कथं तत् तत्प्रच्युतिः ? अथ कपालमन्यभावोपलक्षणम् तेन सह घटक्षणस्यान्यस्य प्रादुर्भावः पूर्वस्य च प्रध्वंसः सदृशापरापरानुभवश्च दलितपुनरुदितकररुहनिकरादिष्विव ‘स एवायम्' इत्येकाध्यवसायोदयः । नन्वत्रापि किं स एव पदार्थात्मा प्रतिभाति आहोस्वित् तत्प्रतिसमयमन्यान्यसंवेदनेऽपि सादृश्यादेकत्वभ्रान्तिरिति नात्र निश्चयो बाधकानुत्पत्तौ दर्शनस्य वितथत्वात् सिद्धः। ??] के पहले घट असत् था फिर उत्पन्न हो कर सत् कैसे हो गया ? तुल्य स्थिति है। [ असत् सद्भवन की तरह घट का कपालभवन अविरुद्ध ] यदि कहा जायः - ‘पहले जो घटादि असत् था वह अपनी उत्पत्तिक्षण में सत् है, इस में कोई विरोध नहीं है' - ठीक इसी तरह पहले घट सत् था और विनाशपल में कपाल बन गया इस में क्या विरोध है ? प्रश्न :- घट और कपाल सर्वथा भिन्न है. अब घट कैसे कपालरूप यानी 15 कपालाभिन्न हो गया ? उत्तर :- वास्तव में कहीं एकान्तभेद नहीं होता, भेद-अभेद दोनों सापेक्षभाव से एक में रह सकता है। उदा० एक ही संवेदन में ग्राह्याकार-ग्राहकाकार का भेद रहने पर भी अभेद होता है। तथा अवयव-अवयवी में भेदाभेद होने से पृथग् अवयव रूप से अनेक होनेवाले तन्तु आखिर वस्त्ररूप से एक बनते हैं वहाँ कोई विरोध नहीं होता - यह बार बार कहा जा चुका है। सारांश, कारणों की कार्यात्मकरूप से परिणति ही निवृत्ति कही जाती है, इस स्थिति में घट प्रच्युति द्वितीयक्षणरूप 20 न हो कर कालान्तरभावी कपालरूप सिद्ध हो गयी तो क्षणिकता रही कहाँ ? [ भावान्तररूप घटप्रच्युति - तीसरे विकल्प की आलोचना ] घटप्रच्युति के तीसरे विकल्प में यदि कहें - ‘घट प्रच्युति न तो घटरूप है न कपालस्वरूप, किन्तु स्वतन्त्र भावरूप है, अतः क्षणिकता अक्षुण्ण है। - अरे ! तब प्रश्न आयेगा - स्वतन्त्रभावरूप घटप्रच्युति को घट के साथ समकाल में अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं रहा, फिर उससे “घटप्रच्युति' 25 कैसे कहेंगे ? (क्योंकि घटप्रच्युति तो घट की विरोधिनी होती है, भावान्तर विरोधी नहीं होती।)। यदि कहें कि - ‘कपाल घटप्रच्युतिरूप है ही, लेकिन कपाल के उपलक्षण से नूतन घटक्षरूप अन्यभाव भी ‘घटप्रच्युति' होता है, अतः नूतन घटक्षणरूप की उत्पत्ति और पूर्व पूर्व घटक्षण का नाश - इस तरह क्षणिकता सुरक्षित है। फिर भी ‘यह वही है' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञा बोध होता है वह समान अन्य अन्य क्षणों का उद्भव होने से होता है। उदा० एक बार नाखुन को काटने के बाद वह पुनः 30 ऊगता है तब भी 'यह वही है' ऐसा बोध होता है।' - तो यहाँ विनिगमनाविरह होगा. उस बोध में वही पूर्व पदार्थ भासित होता है या समय समय बदलनेवाले स्वलक्षाण का संवेदन (दर्शन) होने पर भी सादृश्य के कारण एकत्व का भ्रम होता है ? यहाँ एकत्वबो ध में बाधकप्रती ति का उदय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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