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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
न्यायस्य समानत्वात् । स्वयमेवोत्पित्सोस्तत्कृतोपकाराभावात् सम्बन्धाभावतो व्यपदेशाभावतो(वो)ऽपि समानः । एवं च प्रयोजनाभावाद् भावहेतुर्भावं नोत्पादयतीति, नाप्यभावं भावयतीति कथं नाऽकिंचित्करत्वम् ? 'अभावं भावीकरोति' इति चेत् ? नन्वेवं हेतु विनाशहेतुर्भावमभावीकरोतीति तुल्यम् ।
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यदपि – ‘स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो यस्य (T: ? ) स ( 1?) स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुर्नोत्पादयति तदा विरुद्धमभिधानं स्यात्' - इत्याद्युक्तं तद् विनाशहेतावपि तुल्यम् । तथाहि - विनाशकारणाद् विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मो यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयति तदा विरुद्धाभिधानमित्याद्यपि कथं न समानम्। यदपि - उत्पत्तेः प्राग् उत्पत्तिधर्मिणोऽसत्त्वात् किमुत्पत्तिधर्माणमुत्पत्तिहेतुरुत्पादयति, आहोस्विद् अनुत्पत्तिधर्माणम् (१९९-७ ) इत्यादिविकल्पानुपपत्तिः तदपि ( १९३-६) विनाशहेतौ समानम् प्रागभाववत् प्रध्वंसाभावास्यापि भवन्मतेनाऽभावात् कथं तत्रापि विकल्पोत्पत्तिः ? येषां च न घटनिवृत्तिः कपालस्वरूपादन्या 10 तेषां कथं न कपालहेतुर्घटध्वंसहेतुर्भवेत् ? अथ कथं कपाललक्षणस्य वस्त्वन्तरस्य प्रादुर्भावे 'घटो विनष्टः ' इति व्यपदिश्यते ? नैष दोष:, मुद्गरादेर्घटस्यैव कपालभावाद् 'घटो विनष्ट:' । 'कथं स एवाऽन्यथा उत्पत्तिहेतु का कोई उपकार न होने से उस के साथ इस का कोई सम्बन्ध नहीं होगा, अत एव ‘यह उस का उत्पादक' ऐसा व्यवहार भी उत्पत्तिहेतुसाध्य नहीं होगा । विनाशहेतु की तरह उत्पत्तिहेतु के लिये भी व्यवहारशून्यता दोष समान है । इस प्रकार कह दो कि कोई प्रयोजन न होने के कारण 15 भावहेतु भावनिर्माण नहीं कर सकता, अभाव का भावीकरण भी नहीं कर सकता, अतः उत्पत्ति हेतु अकिंचित्कर क्यों नहीं ? यदि कहें अरे अभाव का भावीकरण (असत् का सत्करण) करता है। तब तो विनाशहेतुरूप कारण भाव का अभावीकरण भी कर सकता है बात समान है। [ उत्पत्तिधर्मता की तरह नाशधर्मिता में युक्तितुल्यता ]
यह जो कहा था अपने कारणों से उत्पत्ति = आत्मसत्तालाभ यह है धर्म जिस का उस को 20 कहते हैं ‘उत्पत्तिधर्मा' । यदि ऐसे उत्पत्तिधर्मवाले को उत्पादकहेतु उत्पन्न ही नहीं करेगा तो उत्पत्तिधर्मत्व से विरोध प्रसक्त होगा.... ऐसा कथन तो विनाशहेतु के लिये भी तुल्य | देखिये - विनाशकारणों से विनाश = आत्मप्रच्युतिस्वरूप यह है धर्म - जिस का वह है 'विनाशधर्मा' उस का विनाश नहीं होगा तो वहाँ भी विरोध प्रसक्त होगा, तुल्यता क्यों नहीं ?
यदि विनाशहेतु से
यह जो कहा था उस को - इत्यादि
(१९९-२२) उत्पत्तिहेतु उत्पत्तिसज्ज को उत्पन्न करता है या जो उत्पत्तिसज्ज नहीं है
25 विकल्पों को अवकाश ही नहीं, क्योंकि उत्पत्ति के पहले उत्पत्तिधर्मी की सत्ता ही नहीं है तो वह सज्ज
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है या नहीं ये विकल्प निरवकाश है । ऐसा तो ( १९३-२८) विनाश के लिये भी समान है । जैसे उत्पत्ति के पहले भाव नहीं होता वैसे विनाश के बाद भी भाव नहीं होता, फिर विनाशपक्ष में भी वे विकल्प कैसे सावकाश हो सकते हैं ? जो लोग कपालस्वरूप से घटनिवृत्ति को भिन्न नहीं मानते उनके मत से जो कपालहेतु है वह घटध्वंस का (घटनिवृत्ति का ) हेतु कैसे नहीं होगा ? यदि पूछा कपाल हेतु से जब कपालरूप भावान्तर की उत्पत्ति होने पर, घटनाश से उस का क्या सम्बन्ध कि वहाँ 'घट विनष्ट हुआ' ऐसा व्यवहार उचित हो सके ? उत्तर :- यहाँ दोष नहीं है, मोगरप्रहार से घट का ही कपालात्मक रूपान्तर होने से, अर्थात् घटनिवृत्ति होने से 'घट का नाश हुआ' यह व्यवहार उचित है। प्रश्न : घट तो घट है वह अन्यविध यानी कपाल कैसे बन गया ?
जाय
उत्तर :- उत्पत्ति
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