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________________ २०० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ न्यायस्य समानत्वात् । स्वयमेवोत्पित्सोस्तत्कृतोपकाराभावात् सम्बन्धाभावतो व्यपदेशाभावतो(वो)ऽपि समानः । एवं च प्रयोजनाभावाद् भावहेतुर्भावं नोत्पादयतीति, नाप्यभावं भावयतीति कथं नाऽकिंचित्करत्वम् ? 'अभावं भावीकरोति' इति चेत् ? नन्वेवं हेतु विनाशहेतुर्भावमभावीकरोतीति तुल्यम् । 5 यदपि – ‘स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो यस्य (T: ? ) स ( 1?) स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुर्नोत्पादयति तदा विरुद्धमभिधानं स्यात्' - इत्याद्युक्तं तद् विनाशहेतावपि तुल्यम् । तथाहि - विनाशकारणाद् विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मो यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयति तदा विरुद्धाभिधानमित्याद्यपि कथं न समानम्। यदपि - उत्पत्तेः प्राग् उत्पत्तिधर्मिणोऽसत्त्वात् किमुत्पत्तिधर्माणमुत्पत्तिहेतुरुत्पादयति, आहोस्विद् अनुत्पत्तिधर्माणम् (१९९-७ ) इत्यादिविकल्पानुपपत्तिः तदपि ( १९३-६) विनाशहेतौ समानम् प्रागभाववत् प्रध्वंसाभावास्यापि भवन्मतेनाऽभावात् कथं तत्रापि विकल्पोत्पत्तिः ? येषां च न घटनिवृत्तिः कपालस्वरूपादन्या 10 तेषां कथं न कपालहेतुर्घटध्वंसहेतुर्भवेत् ? अथ कथं कपाललक्षणस्य वस्त्वन्तरस्य प्रादुर्भावे 'घटो विनष्टः ' इति व्यपदिश्यते ? नैष दोष:, मुद्गरादेर्घटस्यैव कपालभावाद् 'घटो विनष्ट:' । 'कथं स एवाऽन्यथा उत्पत्तिहेतु का कोई उपकार न होने से उस के साथ इस का कोई सम्बन्ध नहीं होगा, अत एव ‘यह उस का उत्पादक' ऐसा व्यवहार भी उत्पत्तिहेतुसाध्य नहीं होगा । विनाशहेतु की तरह उत्पत्तिहेतु के लिये भी व्यवहारशून्यता दोष समान है । इस प्रकार कह दो कि कोई प्रयोजन न होने के कारण 15 भावहेतु भावनिर्माण नहीं कर सकता, अभाव का भावीकरण भी नहीं कर सकता, अतः उत्पत्ति हेतु अकिंचित्कर क्यों नहीं ? यदि कहें अरे अभाव का भावीकरण (असत् का सत्करण) करता है। तब तो विनाशहेतुरूप कारण भाव का अभावीकरण भी कर सकता है बात समान है। [ उत्पत्तिधर्मता की तरह नाशधर्मिता में युक्तितुल्यता ] यह जो कहा था अपने कारणों से उत्पत्ति = आत्मसत्तालाभ यह है धर्म जिस का उस को 20 कहते हैं ‘उत्पत्तिधर्मा' । यदि ऐसे उत्पत्तिधर्मवाले को उत्पादकहेतु उत्पन्न ही नहीं करेगा तो उत्पत्तिधर्मत्व से विरोध प्रसक्त होगा.... ऐसा कथन तो विनाशहेतु के लिये भी तुल्य | देखिये - विनाशकारणों से विनाश = आत्मप्रच्युतिस्वरूप यह है धर्म - जिस का वह है 'विनाशधर्मा' उस का विनाश नहीं होगा तो वहाँ भी विरोध प्रसक्त होगा, तुल्यता क्यों नहीं ? यदि विनाशहेतु से यह जो कहा था उस को - इत्यादि (१९९-२२) उत्पत्तिहेतु उत्पत्तिसज्ज को उत्पन्न करता है या जो उत्पत्तिसज्ज नहीं है 25 विकल्पों को अवकाश ही नहीं, क्योंकि उत्पत्ति के पहले उत्पत्तिधर्मी की सत्ता ही नहीं है तो वह सज्ज 30 — - है या नहीं ये विकल्प निरवकाश है । ऐसा तो ( १९३-२८) विनाश के लिये भी समान है । जैसे उत्पत्ति के पहले भाव नहीं होता वैसे विनाश के बाद भी भाव नहीं होता, फिर विनाशपक्ष में भी वे विकल्प कैसे सावकाश हो सकते हैं ? जो लोग कपालस्वरूप से घटनिवृत्ति को भिन्न नहीं मानते उनके मत से जो कपालहेतु है वह घटध्वंस का (घटनिवृत्ति का ) हेतु कैसे नहीं होगा ? यदि पूछा कपाल हेतु से जब कपालरूप भावान्तर की उत्पत्ति होने पर, घटनाश से उस का क्या सम्बन्ध कि वहाँ 'घट विनष्ट हुआ' ऐसा व्यवहार उचित हो सके ? उत्तर :- यहाँ दोष नहीं है, मोगरप्रहार से घट का ही कपालात्मक रूपान्तर होने से, अर्थात् घटनिवृत्ति होने से 'घट का नाश हुआ' यह व्यवहार उचित है। प्रश्न : घट तो घट है वह अन्यविध यानी कपाल कैसे बन गया ? जाय उत्तर :- उत्पत्ति Jain Educationa International - - For Personal and Private Use Only — www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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