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________________ १७२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ इत्युक्तमेवाभिधानम् । न च यथा नीलत्वाऽव्यतिरिक्तमपि क्षणिकत्वं तत्संवेदने न संवेद्यते तद्वच्छब्दरूपमपीति वक्तव्यम् भ्रान्तिकारणवशान्निर्विकल्पकेन गृहीतमपि (न) निश्चीयते इत्यनुभवापेक्षया तद्ग्रहणे तदपि गृहीतमेव निश्चयापेक्षया त्वगृहीतमिति ज्ञानभेदाद् गृहीतत्वमगृहीतत्वं चैकस्याऽविरुद्धमेव। न चैवं शब्दब्रह्मणो भवन्मतेन ग्रहणाऽग्रहणे, सविकल्पकत्वाभ्युपगमात् सर्वसंविदाम्, सविकल्पकत्वेन 5 च सर्वात्मना शब्दस्य निश्चितत्वादगृहीतस्वभावान्तरानुपपत्ते.... निश्चयैः। यन्न निश्चीयते रूपं तत् तेषां विषयः कथम् ।। (त.सं.पंजिकायामुद्धृतः) इति प्रतिपादनात्। न चाऽविकल्पकस्यापि ज्ञानस्याभ्युपगमादयं न दोषः, 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके'... (वाक्य.१-१२४) इत्यादेविरुद्धत्वप्रसक्तेः, 'शब्दाकारानुस्यूतत्वात्' के साथ घटादि की उपलब्धि के अतिप्रसंग का दोष, अथवा रूपादि की उपलब्धि होने पर बधिर मनुष्य को शब्दोपलब्धि का दोष अनिवार्य है। यदि कहें कि - 'शब्दब्रह्म अतिसूक्ष्म अत एव अतीन्द्रिय 10 होने से रूपादिउपलब्धिकाल में शब्दसंवेदन की विपदा नहीं होगी' - तो यहाँ भी यह दोष होगा कि ब्रह्म-अभिन्न होने से जैसे ब्रह्मस्वरूप अतिसूक्ष्मतादि के कारण उपलब्ध नहीं हो सकता वैसे ही अतिसूक्ष्मादि ब्रह्म से अभिन्न नीलादि पदार्थों का भी ग्रहण न होने का अतिप्रसंग सिर उठायेगा। [क्षणिकत्व की तरह शब्दमयता के असंविदितत्व की अनुपपत्ति ] अतः ब्रह्मवादी जो कहते हैं कि - ‘परतत्त्वदर्शी (ब्रह्मतत्त्वदृष्टा) जो नहीं है वे तो उत्पत्ति15 विनाशशाली अर्थों का ही ज्ञान कर सकते हैं' - यह कथन अयुक्त ही है। ऐसा नहीं बोलना कि - 'जैसे बौद्ध मत में (पर्यायार्थिकनयानुसार) नील के संवेदन में नीलत्व ही भासता है, यद्यपि क्षणिकत्व भी अभिन्न रूप से नील में है लेकिन वह नहीं भासता, इसी तरह रूपप्रतिभासकाल में अभिन्न होने पर भी शब्द नहीं भासता, दोष क्या है ?' - निषेध का कारण :- हमारे मत में नील संवेदन में क्षणिकत्व संविदित नहीं होता ऐसा नहीं है, किन्तु निर्विकल्पगृहीत होने पर भी भ्रान्तिकारणों के 20 जरिये विकल्प से निश्चित नहीं होता, इस लिये अनुभव (संवेदन) की अपेक्षा से क्षणिकत्व का ग्रहण होने पर भी निश्चय (सविकल्प) की अपेक्षा क्षणिकत्व का अग्रहण न्यायसंगत है। इस प्रकार निर्विकल्पसविकल्प ज्ञान भेद से एक ही नीलादि में (नीलत्व का) ग्रहण और (क्षणिकत्व का) अग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है। [शब्दब्रह्म में ग्रहण-अग्रहण उभय की अनुपपत्ति ] 25 नीलत्व-क्षणिकत्व का उदाहरण ले कर आप ऐसा नहीं कह सकते कि - 'हमारे मत में भी रूपादि का ग्रहण - शब्दब्रह्म का अग्रहण संगत होगा' - क्योंकि बौद्धमत में क्षणिकत्व का ग्राहक है निर्विकल्प, अग्राहक है सविकल्प, आप के मत में तो सभी ज्ञान सविकल्प ही होता है, और सविकल्परूप होने से उस से शब्द का सर्वप्रकार से ग्रहण हो जाता है फिर कैसे शब्द में अगृहीतत्वरूप स्वभावान्तर संगत होगा ? आप के मत में ऐसा ही कहा गया है - 'निश्चयों से जिस रूप का भान नहीं 30 होता वह उन का विषय कैसे हो सकता है ?' इस से भी उपरोक्त वार्ता का समर्थन हो जाता है। यदि क्षणिकत्वनिर्विकल्प की तरह शब्दब्रह्म के निर्विकल्प का स्वीकार कर के आप दोष टालने की कोशिश करेंगे तो वाक्यपदीय के - ‘ऐसी कोई प्रतीति नहीं जो शब्दानुगम से रहित हो' - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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