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________________ खण्ड-३, गाथा-६ १७१ पौरस्त्यस्वभावध्वंसात् । अथाऽपरित्यागेनेति पक्षः, तदा रूपसंवेदनसमये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसङ्गः तदव्यतिरेकात् नीलादिवत्। तथाहि- यत् यदव्यतिरिक्तं तत् तत्संवेदने संवेद्यते, यथा तत्स्वरूपम्, रूपाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्दात्मेति स्वभावहेतुः। अन्यथा भिन्नयोगक्षेमत्वात् तद-तदात्मकमेव न स्यादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । अथ तत्समये न तत्संवेदनमिष्यते तदा रूपादेरप्यसंवेदनप्रसंग: एकस्वभावत्वात् । भिन्नधर्मत्वे वा शब्द-रूपादेरत्यन्तभेद एव । न ह्येकप्रमात्रपेक्षयैकस्यैव ग्रहणमग्रहणं वा एकत्वहानिप्रसंगात्। 5 ___ यदि पुनर्विरुद्धधर्माध्यासेऽप्यभेदः घट-पटादिव्यक्तीनामपि कल्पितभेदानामभेदप्रसक्तिः । परेणाभ्युपगतश्च घटादिव्यक्तीनां भेदः, यतः स्वात्मनि व्यवस्थितस्य ब्रह्मणो नास्ति भेद: अविकारविषयत्वादस्येति परसिद्धान्तः। न हि घटाद्यात्मना तस्यानादिनिधनत्वम् किन्तु परमात्मापेक्षया। घटादयश्च परिदृश्यमानोदय-व्ययाः परिच्छिन्नदेशादयश्चोपलभ्यन्त एव । अयं चोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे ब्रह्मणो दोष उक्तः । अतिसूक्ष्मतयाऽतीन्द्रियत्वे तु तस्य तत्स्वरूपवन्नीलादीनामप्यग्रहणप्रसक्तिर्दोषः। तेन 'उदय-व्ययवतीमेवार्थमात्रामपरदर्शनाः प्रतियन्ति' 10 का नाश प्रसक्त होगा। यदि 'न छोडते हुए' इस दूसरे पक्ष का स्वीकार हो, तब शब्द और रूप । जाने से, बधिर नर को रूपसंवेदनकाल में शब्द का भी संवेदन प्रसङ्ग प्राप्त होगा, जैसे अभेद के कारण रूप तादात्म्यापन्न नील का सहसंवेदन होता है। व्याप्ति देख लो - जो जिस से जूदा नहीं वह उस के संवेदन में संविदित होता है जैसे वस्तु और उस का स्वरूप। शब्दपदार्थ भी आपने रूपादिअभिन्न मान्य किया है। यह है स्वभावहेतप्रयोग। यदि इस के । तो बाध क्या ? ऐसा पूछा जाय तो कहेंगे कि भिन्न योगक्षेम होने से, मतलब एक का संवेदन किन्तु तदभिन्न अन्य का नहीं ऐसा भिन्न प्रस्थान होने पर वह रूपादि, नील तादात्म्यापन्न नहीं रहेगा। यही विपक्षबाधक प्रमाण व्याप्तिसाधक है। यदि कहें कि रूपादिसंवेदन होने पर भी नील-पीत का संवेदन न हो तो क्या बाध ? अरे ! नील/पीतादि का संवेदन न होने पर तो उन से अभिन्न रूपादि का भी संवेदन लुप्त हो जायेगा, क्योंकि रूप और नील एक ही स्वभाव के हैं। एक स्वभाव के बदले 20 उन दोनों को भिन्न धर्मवाले मानेंगे तो यहाँ नील और रूपादि में भी भिन्नधर्मता के जरिये अत्यन्तभेद प्रसक्त होगा। एक ही ज्ञाता एक एवं अभिन्न पदार्थों में से एक को ग्रहण करे अन्य को नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता, अन्यथा एकत्व लुप्त हो जायेगा। [शब्दमयता पक्ष में घट-पटादि में अभेदप्रसंग ] ग्रहण-अग्रहण ऐसे विरुद्धधर्माध्यास हो वहाँ भेद मान लेना चाहिये, उस के बदले बलात् अभेद 25 का आग्रह रखा जाय तो जिन घट-पटादि में भेद सुविदित है (क्योंकि वे अन्योन्य घटत्व-पटत्वादि विरुद्धधर्माध्यासित है,) उन में भी अभेदप्रसंग का अनिष्ट होगा। शब्दमयता वादी घट-पटादि का भेद नहीं मानता है ऐसा नहीं है। उस का सिद्धान्त तो यह है कि (विकारों में भेद होता है किन्तु) ब्रह्म विकारग्रस्त न होने से, अपने स्वरूप में लीन ब्रह्म में भेद नहीं होता। ब्रह्म की अनादिनिधनता भी घटादिस्वरूपतः नहीं है किन्तु सिर्फ स्व-आत्मा की अपेक्षा से ही अनादिनिधनता होती है। घटादि 30 में तो उत्पत्ति-विनाश दिखते हैं और मर्यादितदेशादिसम्बन्धिता भी उपलब्ध होती है। फिर भी जब शब्द ब्रह्म से अभेद मानने का आग्रह है तो ब्रह्म उपलब्धि योग्य होने से शब्दब्रह्म की उपलब्धि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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