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________________ १७० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती। न प्रकाश: प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी।। इति। ज्ञानाकारनिबन्धना च वस्तूनां प्रज्ञप्तिरिति नैषां शब्दाकारानुस्यूतत्वमसिद्धम्, तत्सिद्धेश्च तन्मात्रभावित्वात् तन्मयत्वस्य तन्मयत्वमपि सिद्धमेव । अत एव 'अयं घटः' इत्यभेदेन शब्दार्थ-सम्बन्धो वैयाकरणैः - 'सोयमित्यभिसम्बन्धाद् रूपमेकीकृतम्' इत्यादिनाऽभिजल्पस्वरूपं दर्शयद्भिः प्रतिपादितः । अत्र च पर्यायास्तिकमतेन प्रतिज्ञादोष उद्भाव्यते किमत्र जगतः शब्दपरिणामरूपत्वाच्छब्दमयत्वं साध्यते, उत शब्दात्तस्योत्पत्तेः शब्दमयत्वं यथा 'अन्नमयाः प्राणाः' इति हेतौ 'मयट' विधानात ? न तावदाद्यः पक्षः परिणामानुपपत्तेः। तथाहि - शब्दात्मकं ब्रह्म रूपाद्यात्मकतां प्रतिपद्यमानं स्वरूपत्यागेन वा प्रपद्यते ? अपरित्यागेन वा ? यदि परित्यागेनेति पक्ष आश्रीयते तदाऽनादिनिधनमित्यनेन यदविनाशित्वमभ्युपगतम् तस्य हानिप्रसक्तिः 10 ज्ञान परामर्शविहीन ही रह जायेगा अतः परामर्शरूपता के बिना बोध का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। तथा परामर्शरूपता न होने से प्रवृत्ति आदि लोकव्यवहार भी नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। वाक्यपदीय में कहा है - _ “ज्ञान की वाङ्मयता शाश्वती है वह यदि (ज्ञान को) छोड जायेगी तो ज्ञान की प्रकाशता भी चली जायेगी क्योंकि वही परामर्शकारक है।” 15 वस्तु का निरूपण ज्ञानाकारमूलक होता है अतः ये वस्तु भी ज्ञान की शब्दाकारता से अनुवासित हो तो इस में कोई असिद्धता नहीं है। ज्ञान की शब्दाकारता सिद्ध होने पर ज्ञानमात्र पर आधारित होने के कारण वस्तुमात्र की ज्ञानमयता की सिद्धि से शब्दमयता भी सिद्ध हो जाती है। इसी लिये, 'यह वही है' इस प्रकार के अन्योन्य अभिमुख सम्बन्ध के आधार पर (अर्थ और शब्दों के) रूप का एकीकरण करते हुए व्याकरणपंडितों ने 'अभिजल्प का स्वरूप निर्देश करते हुए साथ में 'यह घट 20 है' इस तरह अभेदभाव से शब्द-अर्थ का सम्बन्ध, प्रदर्शित किया है। द्रव्यार्थिक नय का हाथ पकड कर शब्दब्रह्मवादी ने शब्द, ज्ञान और अर्थों के तन्मयत्व का निदर्शन समाप्त किया। [ पर्यायास्तिक नय से विश्व-वाङ्मयता प्रति दोषापादान ] द्रव्यार्थिकनयाधारित शब्दब्रह्मवादी मत के ऊपर अब पर्यायास्तिकनय से दोष-प्रदर्शन किया जाता 25 है - प्रश्न - जगत् की शब्दमयता कैसे सिद्ध करते हो - Aशब्दपरिणामरूपता होने से या जिगत् शब्दहेतुक होने से ? उदा० प्राण अन्नमय हैं' यहाँ मयट् प्रत्यय हेतु अर्थ में है, शब्दमय में भी ऐसा ही समझना ? मतलब, जगत् की उत्पत्ति शब्दमूलक होने से ? Aप्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि परिणामवाद घट नहीं सकता। कैसे यह देखिये - शब्दमय ब्रह्म अपने स्वरूप को छोड कर रूपादिपरिणामपरिणत होते हैं या न छोडते हुए ? 30 यदि पहले ‘छोड कर' पक्ष का स्वीकार है तो वाक्यपदीय श्लोक में जो शब्दब्रह्म को 'अनादि-निधन' शब्दप्रयोग से ‘अविनाशि' कहा गया है उस का भंग होगा क्योंकि शब्द के अपने पूर्वस्वरूप (शब्दता) 1. अभिजल्पो = वाचकशब्दोल्लेखः (प्र.वा.२/२४९ टीका) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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