SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-६ १६९ एतच्च शब्दस्वभावात्मकं ब्रह्म प्रणवस्वरूपम् स च सर्वेषां शब्दानाम् समस्तार्थानां च प्रकृतिः । अयं च वर्ण-क्रमरूपो वेदस्तदधिगमोपायः प्रतिच्छन्दकन्यायेन तस्यावस्थितत्वात् । तच्च परमं ब्रह्म अभ्युदयनिःश्रेयसकलधर्मानुगृहीतान्तःकरणैरवगम्यते । अत्र च प्रयोगः - ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मयाः यथा घटशरावोदञ्चनादयो मृद्विकारानुगता मृण्मयत्वेन प्रसिद्धाः, शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वे भावा इति स्वभावहेतुः । प्रत्यक्षत एव शब्दाकारानुगमोऽनुभूयते । तथाहि - अर्थेऽनुभूयमाने शब्दोल्लेखानुगता एव सर्वे प्रत्यया 5 विभाव्यन्ते । उक्तं च ( वाक्यप ० १ - १२४) न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ।। इति । न च वाग्रूपताननुवेधे बोधस्य प्रकाशरूपतापि भवेत् तस्याऽपरामर्शरूपत्वात् तदभावे तु तस्याऽभावात् बोधस्याप्यभावः, परामर्शाभावे च प्रवृत्त ( ? त्त्या) दिव्यवहारोऽपि विशीर्येत इति । आह च ( वाक्यप०१-११५) अक्षर है, उसी के अर्थतादात्म्यभाव से इस जगत की प्रक्रिया विवर्त्तमान है।' इस श्लोक का शब्दार्थ 10 आदि = उत्पाद, निधन = विनाश, दोनों के न होने से अनादि-निधन | अक्षर = अकारादि अक्षरों का निमित्त, निमित्तभाव से यहाँ शब्दात्मक स्वरूप से उस के विवर्त्त का निर्देश किया है । 'अर्थभावेन' (= अर्थतादात्म्यभाव से) इस पद से शब्दप्रतिपाद्य विवर्त्त का निर्देश किया है । ( विवर्त्त का मतलब है जो किसी के प्रपञ्च के रूप में भासमान होता है ।) 'प्रक्रिया' पद से शब्द और अर्थ के विवर्त्त के अनेक भेदों का निर्देश है । ब्रह्मपद से पूर्व-पश्चिमादिदिशाभेदशून्य अनुत्पन्न अविनाशि शब्दमय 15 ब्रह्मसूचित किया है। यह जगत् उसी का विवर्त्तरूप है, मतलब कि रूपादिभावसमुदायात्मक परिणामरूप है । श्लोकार्थ पूरा हुआ । - - यह शब्दात्मकस्वभावरूप ब्रह्म प्रणव (यानी ॐकार ) स्वरूप है, वही एक समस्त शब्द और सम्पूर्ण अर्थसमुदाय की प्रकृति यानी मूल उपादान या उद्गमस्थली है । शब्दब्रह्म की पहचान कराने वाला वेद है जो कि क्रमिक वर्णसमुदायात्मक है, वेद में ही शब्दब्रह्म प्रतिबिम्बन्यास से अवस्थित होने के कारण 20 उस को शब्दब्रह्मज्ञान का उपाय दिखलाया गया है। परमब्रह्मतत्त्व का विशुद्ध बोध उन्हीं को होता है जिन का हृदय अभ्युदय - निःश्रेयस फलक धर्मतत्त्व से आप्लावित रहता है। इस को समझने के लिये एक प्रयोगः "जिस आकार से जो भाव आप्लावित होते हैं वे भाव तन्मय ( तदाकार) होते हैं, उदा. घट-शराव-उदञ्चन आदि भाव मिट्टी के परिणामों से आप्लावित होते हैं वे मिट्टीमय ही होते हैं यह प्रसिद्ध है। सभी भाव शब्दाकार से आप्लावित होते हैं ( इस लिये शब्दतादात्म्यापन्न होते 25 -- खण्ड - ३ - - Jain Educationa International - हैं ।) ' यह स्वभावहेतुक प्रयोग है । समस्त भाव शब्दाकारानुविद्ध हैं यह तो प्रत्यक्षानुभवसिद्ध है। देखिये जब भी अर्थानुभव होता है तब शब्दोल्लेख से अनुवासित ही सभी अनुभव भावित होते हैं । कहा भी है ( वाक्यपदीय में) , [ ज्ञानमात्र शब्दानुविद्ध, प्रकाश की वाग्रूपता ] ' शब्दानुवेध से वंचित हो ऐसा कोई बोध ही नहीं है, समस्त ज्ञान शब्द से मिला-जुला ही 30 प्रतीत होता है ।” अरे ! वाङ्मयता के बिना ज्ञान की प्रकाशरूपता भी घट नहीं सकती । प्रकाशरूपता के बिना For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy