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________________ १६८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ संकेत: कर्तुं शक्यः। शब्दव्यापाराच्च वस्तुगतसदृशपरिणतेरेव प्रतिभासता(?सनात्), स एव शब्दार्थः यः शाब्द्यां प्रतीतो प्रतिभातीति नाऽसदृशपरिणामोऽत्यन्तविलक्षण: तस्यार्थ इति वस्तुस्थितिः । [शब्दब्रह्मवादिभर्तृहरिमतपूर्वपक्षो द्रव्यार्थिकानुगामी ] अत्र च द्रव्यार्थिकमतवलम्बी शब्दब्रह्मवाद्याह भर्तृहरिः- (वा० पदी०१-१) *अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। अत्र आदिः = उत्पादः, निधनं = विनाशः, तदभावाद् ‘अनादिनिधनम्', अक्षरम् इति अकाराद्यक्षरस्य निमित्तत्वात्, अनेन च विवर्तोऽभिधानरूपतया निदर्शितः, ‘अर्थभावेन' इत्यादिना त्वभिधेयो विवर्त्तः, 'प्रक्रिया' इति भेदानामेव संकीर्तनम्। 'ब्रह्म' इति पूर्वापरादिदिग्विभागरहितम् अनुत्पन्नम् अविनाशि यच्छब्दमयं ब्रह्म तश्च(?स्या)यं रूपादिभावग्रामपरिणाम इति श्लोकार्थः । 10 भी प्रचुरतया निक्षेप कहा जाता है। ‘पदवृत्तिग्रहणानुकूलव्यापारः निक्षेपः' यह उस की सरल व्याख्या है और उस व्यापार के विषयभूत नामादि चार को प्रचुरतया निक्षेप कहा जाता है।) ___ उपरोक्त संकेतग्रहण कभी अभेदभाव से किया जाता है - जैसे ‘यह घट है', यहाँ कम्बुग्रीवादिमान् पदार्थ को अभिन्नरूप से घट-शब्द के साथ निर्दिष्ट किया जाता है। कभी संकेतग्रहण भिन्नरूप से भी होता है जैसे - 'इस वस्तु का (घट का) घटशब्द वाचक है।' यहाँ घट अर्थ और घट शब्द का 15 भेदनिर्देश है। (नाम निक्षेप की व्याख्या और संकेत का स्पष्टीकरण हुआ, अब विषयभूत सामान्य का निर्देश करते हैं -) निक्षेप का यानी शब्दप्रयोग का विषय है सामान्य। (यानी नामोच्चार के द्वारा निर्देश किया जाता है वस्तुसामान्य का, वस्तुविशेष यानी व्यक्ति का नहीं। (मीमांसक और बौद्ध के मत से नाम जाति का वाचक होता है, नैयायिक के मत से जातिविशिष्ट व्यक्ति का वाचक होता है।) व्याख्याकार कहते हैं कि वस्तुमात्र तुल्यातुल्याकारपरिणामरूप होती है। नाम का प्रयोग तुल्याकार 20 परिणाम (सामान्य या जाति) को ही निर्दिष्ट कर सकता है क्योंकि वह अनेक व्यक्तियों में व्याप्त रहता है, फलतः उस में संकेत करना बहुत सरल बन जाता है। असमानपरिणाम (यानी भेद अथवा विशेष अथवा व्यक्ति) के प्रति संकेत करना शक्य नहीं क्योंकि कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों में व्याप्त नहीं होती, व्यक्तियाँ अनन्त हो सकती है, एक एक व्यक्ति को पकड कर संकेत करना शक्य नहीं। यह सर्वविदित है कि शब्दप्रयोग से वस्तुनिष्ठ तुल्याकार परिणाम ही भासित होता है, शब्दार्थ 25 वही होता है जो शाब्दिक प्रतीति में भासता है। अतुल्याकारपरिणाम (= विशेष) ऐसा विलक्षण है कि शब्दप्रयोग से नहीं भासता अतः वह नाम का वाच्य अर्थ नहीं होता - यह है वास्तविकता। [ द्रव्यार्थिकसदृश शब्दब्रह्मवादी भर्तृहरिमत- पूर्वपक्ष ] ___ दो नय के संदर्भ में नामनिक्षेप प्रकरण में, भर्तृहरि पंडित का शब्दब्रह्मवाद कुछ अंश में द्रव्यार्थिकनय का अनुसरण करने वाला है - व्याख्याकार विस्तार से उस के मत का निरूपण करते हैं - (वाक्यपदीय 30 ग्रन्थ में ‘अनादि... जगतो यतः' श्लोक है) अनादि... 'शब्दस्वरूप ही ब्रह्म है, वह अनादि-अनन्त है, 7. सम्पूर्णोऽयं शब्दब्रह्मपक्षः अविकलतया तत्त्वसंग्रहपञ्जिकायां पृ.६ कारिका १२८ तः पृ.७५ कारिका १५२ मध्ये दृष्टव्यः। (इति भूतपूर्वसम्पादकौ) .. श्लोकोऽयं वाक्यपदीय- तत्त्वसंग्रहपञ्जिका - द्वादशारनयचक्र-प्रमेयकमलमार्तण्ड-स्याद्वादरत्नाकरस्याद्वादकल्पलता-नयोपदेश- टीकाद्यनेकग्रन्थेष दृश्यते । (भूतपूर्वसम्पादकौ) For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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