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________________ १५४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सतां देशादीनां तत्राऽख्यातेः। न च तद्देशादिसम्बन्धग्रहणाद् विपरीतख्यातिः, यतस्तत्सम्बन्धोऽपि यदि सन् प्रतिभाति तदा सदर्थग्रहणान्न विपरीतख्यातिः। अथासंस्तदाप्यसत्ख्यातिर(स्त ?)सदर्थग्रहणात् । अन्यदेशादित्वं च भ्रान्तदृगवसेय(स्यै)वार्थस्य कल्पने (ल्प्यते) नान्यस्य, न तर्हि स्वप्नदृशो भ्रान्तत्वं तदवभासिनोऽन्यदेशादित्वा भावात्। तथापि तत्त्वे सर्वदृशां विपरीतख्यातित्वप्रसक्तिः। अथ भ्रान्तदृगवसेयस्यैवान्यदेशादितयाऽन्यदेश5 स्यापि ग्रहणमिति विपरीतख्यातिस्तत् तर्हि तस्यान्यदेशादित्वं भ्रान्तदृशाऽवसीयते उत पूर्वदर्शनेन ? तदपि यदीदानीन्तनस्यान्यदेशत्वावगतः(मः) तदाऽसंगतम् पूर्वदर्शनस्येदानी(न्तना)नामशक्यत्वादर्श(न)तश्चातिप्रसङ्गतो ग्राहकत्वानुपपत्तेः। नापि पूर्वमिदानीन्तनभ्रान्तदृगवसेयस्य तेन पूर्वदेशादिगतिः, इदानीन्तनज्ञानावसेयस्य पूर्वमभावात्। न चैकमेव पूर्वापरदर्शनावसेयं वस्त्विति न दोषः, पूर्वापरदृग्भावयोरेकत्वाऽसिद्धेः। पूर्वदर्शनेन 10 वर्त्तमानदेशादिपरिहारेण पूर्वदेशादितयैव तस्यावगतेर्नेदानींतनस्य पूर्वादिताऽवगतिः। न च पूर्वदेशादिरे (?देरि)व वर्तमानादेरपि ग्राहकमिति तेनैव पूर्वापरदेशादिना तथाऽवसीयते पूर्वदर्शनकाले वर्तमानदेशादेरअसत् ही प्रतिभासित होते हैं तो असत्ख्याति ही माननी पडेगी क्योंकि उस में सद्भूत देशादि का तो भान नहीं होता। यदि कहें – 'वही (पूर्वदृष्ट)देशादि सत् हो कर वहाँ भासित नहीं होते किन्तु उस का सम्बन्ध (जो अब यहाँ नहीं है और) भासित होता है - यही है विपरीतख्याति' - तो ये प्रश्न हैं - वह सम्बन्ध सत है और भासता है या असत ? यदि सत है तो सदर्थग्रहण होने के कारण विपरीतख्याति हो नहीं सकती। यदि सम्बन्ध असत् है तो असदर्थग्रहण होने के कारण असत्ख्याति हो गयी। यदि भ्रान्तदर्शनवेद्य अर्थ की अन्यदेशादिता भासने के कारण ही आप उस दर्शन को भ्रान्त कहेंगे - तो कभी भी स्वप्नदर्शन को भ्रान्त नहीं कह सकेंगे, क्योंकि उस में दृश्यमान अर्थों में अन्यदेशादित्व है ही नहीं। फिर भी स्वप्नदर्शन को भ्रान्त कहेंगे तो दर्शनमात्र को भ्रान्त 20 (विपरीतख्यातिरूप) मानने की विपदा आयेगी। यदि कहें कि - ‘सर्व दर्शनों के विषयों में नहीं किन्तु जो भ्रान्तदर्शनगृहीत अर्थ है उस में ही स्वदेशवृत्तित्व के बदले अन्यदेशवृत्तितारूप से जो ग्रहण होता है वह विपरीत ख्याति - ऐसी व्याख्या करेंगे' – तो यहाँ प्रश्न हैं कि वह अन्यदेशादिवृत्तित्व उसी भ्रान्तदर्शन से ज्ञात होता है या पूर्वदर्शन से ? वह पूर्वदर्शन भी यदि वर्तमान भ्रान्तदर्शन के अन्यदेशादित्व का ग्राहक मानेंगे तो संगत नहीं है क्योंकि वर्तमान दर्शन के अन्यदेशादि पूर्वदर्शन का विषय बन 25 नहीं सकते, अतः उस का दर्शन शक्य नहीं है, फिर भी शक्य मानेंगे तो सभी दर्शनों से सभी अन्यदेशादि का ग्रहणरूप अतिप्रसंग होने से अन्यदेशादित्व का ग्राहकत्व भ्रान्तदर्शन में अनुपपन्न है। (?) वर्तमान भ्रान्त दर्शन से अन्यदेशादि (यानी पूर्वदेशादि) का बोध शक्य नहीं है क्योंकि उस काल में यानी पहले वर्त्तमानदर्शनग्राह्य देशादि विद्यमान ही नहीं थे। [ पूर्वदेशादि वर्तमानदेशादिता के ऐक्य का निषेध ] 30 यदि कहें कि – 'पूर्वापरदर्शनग्राह्य वस्तु एक ही है अतः उपरोक्त दोष निरवकाश है' - नहीं, पूर्वापरदर्शन ग्राह्य विषयों में एकत्व सिद्ध नहीं है। पूर्वदर्शन से जो गृहीत हुआ है वह वर्तमानदेशादि का स्पर्श न कर के पूर्व(तत्काल)देशादितारूप से ही गृहीत होता है, अतः वर्तमानकालीन वस्तु में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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