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________________ खण्ड-३, गाथा-५ १५५ भावेन तत्सम्बन्धित्वस्य तेन तत्र प्रतिपत्तुमशक्तेः, भावे वा वर्तमानदेशादेः पूर्वदेशादिरूपतैव न इदानींतनदेशादितेति तदनुषक्तार्थावगतौ पूर्वदर्शने कथमिदानींतनस्य पूर्वादितावगतिः ? न च पूर्वदेशादिरेव वर्त्तमानदेशादि: प्रत्यभिज्ञानादवसितस्य परिगतार्थस्याप्येकतापत्तेः स्वप्नादिप्रत्ययस्य पूर्वप्रत्ययवदभ्रान्तताप्रसक्तेः एकविषयत्वात्। ___ न च प्रत्यभिज्ञानात् पूर्वापरदेशादीनां तद्दर्शनकाले सत्त्वेनाऽप्रतिभासनात् तत्सम्बन्धित्वस्याऽप्य- 5 प्रतिपत्तेरसतामपि देशादीनां तत्सम्बन्धित्वस्य वा तत्र प्रतिभासे दर्शनमस(त्)ख्याति: स्यात्। अथ तद्देशा(दय)दयस्तत्सम्बन्धित्वं वा सत् तत्र प्रतिभाति तथा सति विद्यमानार्थग्राहित्वात् न भ्रान्तं भवेत् । पूर्वदेशादिमद्वस्तुप्रतिभासे च य(?त)दवभास एव न वर्तमानरूपतावगतिरिति न विपरीतख्यातिः, अपास्तवर्त्तमानावभासस्य पूर्वरूपग्राहिणः स्मृतिस्तद्वि(?रूपस्य) विपरीत(स्या?)ख्यातित्वायोगात्। न च पूर्वकालपूर्वदेशादिरूपता का भान शक्य नहीं। ऐसा कहें कि – 'पूर्वदर्शन पूर्वदेशादि की तरह वर्तमानादि 10 का भी ग्राहक होता है अतः उसी से पूर्वापरदेशादिअवगाहितया वर्तमानादि का ज्ञान होता है।' - यह ठीक नहीं, क्योंकि पूर्वदर्शनकाल में वर्तमानदेशादि की सत्ता न होने से, वर्त्तमानदेशादिसम्बन्धिता का वहाँ उस से ग्रहण शक्य नहीं है। यदि फिर भी शक्य मानेंगे तो वर्तमानदेशादि में भी पूर्वादेशादिरूपता ही प्रसक्त होगी न कि वर्तमानदेशादिता, तब उस से अनुषक्त अर्थ का बोध पूर्वदर्शन से ही हो जाने पर पूर्वदर्शन में वर्तमान (काल या वस्तु) में पूर्वादि(काल)ता का भान होगा कैसे ? यदि पूर्वदेशादि 15 और वर्तमानदेशादि को एक ही मानेंगे तो प्रत्यभिज्ञा से अवभासित परिगत यानी तुल्य अर्थ का भी ऐक्य प्रसक्त होगा। फलतः पूर्वप्रतीति की तरह स्वप्नादि प्रतीति में भी जाग्रद्दशागृहीत अर्थों की एकविषयता के कारण अभ्रान्तता की आपत्ति होगी, क्योंकि वहाँ भी ‘वही है यह' ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है। [ असद् भासित होने पर असत्ख्याति की आपत्ति ] प्रत्यभिज्ञान से पूर्वापरदेशादि का ऐक्य सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि एकदेशादि दर्शन काल में अन्यदेशादि (या) पूर्वदेशादि का सत्त्वरूप से प्रतिभास नहीं होता, न तो उन के सम्बन्धित्व का भान होता है। यदि एकदेशादि के दर्शन काल में अन्यदेशादि या उन का सम्बन्धित्व असत् होने पर भी भासित होने का मानेंगे तो वहाँ दर्शन को असत् ख्याति रूप मानना पडेगा। यदि कहें कि – 'दर्शन में भासमान तद्देशादि अथवा तत्सम्बन्धित्व सत् होते हैं' – तब तो सद्भूतार्थग्राहि होने से वह दर्शन 25 भ्रान्त नहीं होगा। जब पूर्वदेशादियुक्तवस्तु का प्रतिभास होता है तो उसी वस्तु का अवभास मानना चाहिये, वर्तमानरूपता का भान नहीं मानना चाहिये, फलतः विपरीतख्याति मानने की जरूर नहीं रहेगी। फिर भी मानेंगे तो जहाँ स्मृतिप्रत्यय में पूर्वरूप का ही ग्रहण है, वर्तमान का अवभास दूरापास्त है. उस में भी विपरीतख्यातित्व का अनिष्ट हो जायेगा। यदि कहें कि - 'भ्रान्तरजतस्थल में पूर्वकाल वर्तमानकालादितया भासित होने से भ्रान्तावभास के कारण उस को विपरीतख्याति मानेंगे' – तो यह 30 निषेधार्ह है क्योंकि वर्तमानदेश वहाँ प्रतिभासित नहीं होने से रजत में पूर्वरूपता का अभाव प्रसक्त होगा। कारण :- संनिकट हो कर जो रूप भासता है वही सत् हो सकता है, पूर्वदेशादित्व न तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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