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खण्ड-३, गाथा-५
१५३ अथ प्रत्यक्ष(म)भावाकारतया प्रतिभाति तर्हि तदेव रूपं न तस्याः सदस्तु न स्मृतिरूपता तस्यास्तत्राप्रतिभासना(त्) वा बाधक प्रत्ययो रजतमसदेव प्रतिभास(मानम् ?) इत्युल्लेखेन प्रवर्त्तमानो रजताभावमेवावग(च्छ)ति(:?), न भ्रान्तेः स्मृतिरूपतामिति न रजताभावसमये नापि बाधकप्रत्ययप्रवृत्तिकाले चान्तरदृष्टां स्मृतिरूपता-प्रतिपत्तिः। प्रतिपत्तिप्रमोषकल्पना। सर्वत्राप्येतद्दोषपरिजिहीर्षया विपरीतख्यातेरभ्युपगमः (न) श्रेयान्। यतो न ताव(त्स्मृ)तेर्विपरीतत्वं तदैवाभावः ख्यातेरभावादप्रतिभासः न तर्हि 5 ख्यातेरभावे विपरीतख्याति: यतो यदन्यप्रतिपत्ति: पूर्वदर्शनं तु कथं विपरीतख्याति: ? न ह्यन्यदर्शनात् अना(?न्य)द् विपरीतं भवत्यतिप्रसङ्गात् । नापि विपरीताकारदर्शित्वं विपरीतख्याति: यतोऽत्रापि यदि विपरीतमर्थं दर्शनं गृह्णाति कथं तदा तद् भ्रान्तं भवेत् ? अन्यथा, नीलदर्शनस्यापि पीतदर्शनविपरीतार्थग्राहिणो भ्रान्तताप्रसक्तिः।
न च भिन्नदेशादावभिन्नदेशादितया प्रति तद्वि (?प्रतीत्या) विपरीतख्यातिः, यतो देशादयः तत्र दर्शने 10 प्रतिभासमानाः यदि सन्तः प्रतिभान्ति तदा कथञ्चित् विपरीतख्यातिः। अथाऽसन्तस्तदाप्यसत्ख्यातिप्रसक्तिः
[ भ्रान्तरजतस्थल में स्मृतिप्रमोष का निषेध ] यदि प्रत्यक्षतः अभावाकार भ्रान्तरजतस्थल में दिखता है तो प्रत्यक्ष का वही अभावाकार सत् रूप स्वीकार किया जाय, न स्मृतिरूपता, क्योंकि स्मृतिरूपता उस में प्रतीत नहीं होती। 'रजत असत् ही प्रतिभासता है' - इस तरह के उल्लेखपूर्वक प्रवर्त्तमान बाधक प्रत्यय भी रजत के अभावाकार 15 को ही बोधित करता है, न कि भ्रान्ति की स्मृतिरूपता को। फलतः रजताभास क्षण में या बाधकप्रतीतिकाल में आन्तररूप से अदृष्ट स्मृतिरूपता की प्रतिपत्ति के प्रमोष की कल्पना नहीं करना चाहिये। तथा स्मृतिप्रमोषकल्पना के बदले सर्वत्र ही उक्त दोष के परिहारार्थ (यदि असत् ख्याति नहीं मानना है तो) आखिर अन्यथाख्याति का स्वीकार भी श्रेयस्कर नहीं है। यदि कहें कि – ‘स्मृति का वैपरीत्य उसी काल में अभावात्मक ही है, मतलब ख्याति ही नहीं है - अप्रतिभास है' - तब तो ख्याति 20 के विरह में विपरीतख्याति फलित नहीं हुयी। प्रश्न अब यह है कि यदि अन्य किसी काल में ख्याति का वैपरीत्य यानी अभाव है तो इस से प्रस्तुत में क्या फल आया ?
यदि कहें कि (प्रस्तुत विषय से) भिन्न विषय की ख्याति ही विपरीत ख्याति है तो वह तो पूर्वदर्शन रूप ही है, यहाँ विपरीत ख्याति कैसे हुयी ? एक चीज के देखने पर अन्य चीज का वैपरीत्य नहीं हो जाता।
ऐसा कहें कि विपरीतख्याति का मतलब है कि विपरीत आकार का प्रदर्शकत्व, तो मतलब हुआ कि जो अर्थ विपरीत है उसको उस रूप से दर्शन ग्रहण करता है, इसमें वह भ्रान्त कैसे हो गया ? अरे ! ऐसे तो फिर पीतदर्शन से विपरीत नीलअर्थग्राहि नीलदर्शन में भी भ्रान्तता प्रसक्त होगी।
[एकदेशीय पदार्थ में अन्यदेशादिवृत्तित्व का भान अशक्य ] ___ यदि कहें कि – ‘भिन्नदेशादि(गत) पदार्थ अभिन्नदेशादि (वर्तमान में दृश्यमान देशादिगत) तया 30 प्रतीति होती है वह है विपरीतख्याति - यह उचित व्याख्या है।' – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उस दर्शन में प्रतिभासमान देशादि यदि सत् है तो किसी भी तरह वह विपरीतख्याति नहीं है। यदि
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