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________________ १४२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ विसंवादस्यैवाऽसिद्धेः। न तावत् समानजातीयतद्विज्ञानानुत्पत्तिविसंवादः, यावत् तिमिरं तावत् तस्योदयसद्भावेन तदनुत्पत्तेरसिद्धत्वात्। नापि विजातीयविज्ञानसंवादादिन्दुद्वयादेवैतथ्यम् सत्यज्ञानावभासिस्तम्भादेरपि तत्सद्भावेन वैतथ्यप्रसक्तेः । न च स्तम्भादेरवितथत्वं तदवभासिज्ञानबाधाभावाद् इति वक्तव्यम्, बाधाभावस्य तदवैतथ्याऽप्रसाधकत्वात्। तथाहि- न तावत् तत्कालो बाधाभावः भावसद्भावं अ(व)गमयति, इन्दुद्वयावभासिज्ञानेऽपि तत्सद्भावात् क्षपाकरयुगलस्य सद्भावप्रसक्तेः । नाप्युत्तरकालभावी तदभाव: पूर्वकताल्प(?काल)मर्थसत्तां साधयति तत्कालपरिहारेण प्रवृत्तेः, तथापि तत्साधकत्वे भ्रान्तदृगवसेयस्य रजतादेरुत्तरकालभाविबाधाभावतो भावप्रसक्तिर्भवेत् । नाप्युत्तरकालं भावमसौ साधयति, भ्रान्तदृग(वग)तरजतेनैव व्यभिचारात्। नापि समान कालं तमेव गमयति, समानकालावभासिनोऽर्थस्य भ्रान्तज्ञानावभासिरजतस्यैव ततः सद्भावसिद्धेः। 10 न च बाधाभाव: प्रसज्यरूपस्तुच्छरूपतयार्थसत्त्वस्य व्यवस्थापकः, तद्भावे तुच्छत्वाऽयोगात्। न सदोषकारणजन्यता मानेंगे तो यहाँ भी अन्योन्याश्रय दोष उक्त रीते से तदवस्थ रहेगा। यदि कहें - 'चन्द्रयुगल की मिथ्यारूपता को सदोषकारणमूलक नहीं किन्तु विसंवादिज्ञानविषयतामूलक मानेंगे (अतः अन्योन्याश्रय नहीं होगा)' - तो यह भी निषेधार्ह है क्योंकि यहाँ विसंवाद ही असिद्ध है। समानजातीयज्ञानअनुत्पत्ति को आप विसंवाद नहीं बता सकते, क्योंकि जब लग यहाँ तिमिर सत्ता 15 है तब लग समानजातीयविज्ञान की उत्पत्ति सिद्ध होने से उसकी अनुत्पत्ति(रूप विसंवाद) असिद्ध है। यदि कहें - ‘एकचन्द्रज्ञानरूप विजातीयविज्ञानसंवाद के आधार पर चन्द्रयुगल का मिथ्यापन सिद्ध किया जायेगा' – तो इस तरह अनेकस्तम्भावभासिविजातीयज्ञानरूप संवाद के बल से एकस्तम्भावभासिसत्यज्ञानविषयभूत एक स्तम्भादि के स्थल में भी मिथ्यात्व की आपदा आयेगी। यदि कहें कि – 'उक्त संवादबल से नहीं किन्तु स्तम्भादिभासकज्ञान के प्रति बाधाभाव रहने से स्तम्भादि का सत्यत्व मानेंगे' – तो ऐसा 20 कहना गलत है, क्योंकि बाधाभाव कभी सत्यत्व का साधक नहीं होता। [बाधाभाव भावसत्ता का प्रसाधक नहीं ] कैसे, यह विस्तार से सुनिये - समकालीन बाधाभाव भावसत्ता का भान नहीं करायेगा क्योंकि चन्द्रयुगलावभासिज्ञान के प्रति समकालीन बाधाभाव के रहने से इन्दुद्वय की सत्ता सिद्ध हो जायेगी। उत्तरकालवर्ति बाधाभाव पूर्वकालीन अर्थसत्ता का साधन नहीं कर सकता क्योंकि पूर्वकाल से अस्पृष्ट 25 रह कर ही वह उदित हुआ है। फिर भी उस को उस का साधक मानेंगे तो भ्रान्तदर्शनविषयभूत रजतादि के प्रति जब उत्तरकाल में बाधक नहीं रहेगा तब उस रजतादि की सत्ता प्रसक्त होगी। बाधाभाव अपने उत्तरक्षण में भाव की सिद्धि कर दिखावे ऐसा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि भ्रान्तदर्शनविषयभूत रजत के स्थल में व्यभिचार है, मतलब, उत्तरकाल में पूर्वकालीनबाधाभाव से रजतसिद्धि नहीं होती। बाधाभाव समानकाल में भी भावसत्ता की सिद्धि कर नहीं सकता, यदि करेगा तो समानकाल में 30 भासमान भ्रान्तज्ञानावभासित रजतरूप अर्थ की ही उस से सिद्धि हो जायेगी। [ प्रसज्यनअर्थ तुच्छस्वरूप बाधाभाव अकिंचित्कर ] यहाँ दो प्रश्न हैं – बाधाभाव प्रसज्यनञर्थ स्वरूप यानी तुच्छ है या पर्युदास नञर्थरूप यानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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