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खण्ड-३, गाथा-५
१३३ तस्यायोगात् अतो न नील-तद्धियोः संवेदनभेदः अन्योन्यस्य संवेदनाऽयोगात्। यदप्युक्तम् – 'संविदो भिन्नमभिन्नं वा नीलस्य संवेदनं भेद(?दे) हेतुर्विरुद्धः अभेदश्चासिद्धः।' इति तदप्यसंगतमेव, नीलादीनामपरोक्ष आत्मा संविद् इति प्रतिपादितत्वात् तथा च ज्ञानव्यवहारयोगात् साध्यते परपरिकल्पितबोधवत् अन्यथा बोध-व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात्।।
ननु का सहोपलम्भनियमादस्य भेद: ? एकोपलम्भ एव तस्याप्यर्थः अत्रापि स एव । नैतत्, सहोप- 5 लम्भेन पृथग्भावनिराकरणात् तद्द्वारेण संविद्रूपा नीलादयः प्रसाध्यन्ते, अनेन तु त एव बोधरूपा विधिरूपेणेति। द्वयोरपि हेत्वोापारभेदोऽस्त्येव, परमार्थतस्तु न कश्चिद् भेदः। तच्चाद्वो(बो)धव्यतिरिक्तमभ्युपगम्य सहोपलम्भनियमानीलादेः संविद्रूपता साध्यते। न हि सकृदुपलभ्यमानयोाह्य-ग्राहकभावो नीलबोधयोर्युक्तस्तदन्यक्रियाविरहात् चन्द्रद्वयस्येव परस्परं बोधेन सहेति प्राक् प्रतिपादितम् ग्राह्य-ग्राहकभावाभावे स्वसंविद्रूपाः सिद्धा एव नीलादयः तेन नील-तद्धियोः स्वरूपभेदेऽपि चन्द्रद्वयादेरिव परस्परं बोधरूपतया- 10 हुआ है जिस में अवग्रह भी अनुचित है) एकोपलम्भ उपरांत संवेदन से भी अभेद सिद्ध होता है:नीलादि का स्वरूप प्रत्यक्ष संवेदनात्मक है तो विज्ञान का भी स्वरूप अपरोक्ष संवेदनरूप ही है. संवेदन से भिन्न दोनों का कोई स्वरूप नहीं है; अतः नील और नीलबुद्धि में कोई संवेदनभेद नहीं है, परस्पर भिन्न संवेदन होता नहीं। यह भी जो कहा था – नील का संवेदन विज्ञान से भिन्न हो या अभिन्न ? भेद मानेंगे तो हेतु विरुद्धदोषान्वित बनेगा, अभेद तो असिद्ध है... इत्यादि, वह भी असंगत है क्योंकि 15 नीलादि का जो अपरोक्ष स्वरूप है वही संवेदन है यह कई बार बोल दिया है। (पृ०१०६ पं०६ से पृ०१०७ पं०८ तक पूर्वपक्ष का वक्तव्य देख सकते हैं)। ज्ञान के व्यवहार-साधन से भी वही सिद्ध होता है जैसे पूर्वपक्षकल्पित बोध तथाविध व्यवहार से सिद्ध किया जाता है। ऐसा न मानने पर तो बोधव्यवहार का ही उच्छेद प्रसक्त होगा। [सहोपलम्भनियम और तथासंवेदन दो हेतु में भेद ]
20 प्रश्न :- सहोपलम्भनियम हेतु और तथा संवेदन हेतु दोनों में भेद क्या है ? सहोपलम्भ का जो अर्थ है एकोपलम्भ, तथा संवेदन का भी यहाँ वही अर्थ है।
उत्तर :- ऐसा नहीं है, सहोपलम्भ हेतु से पृथग्भाव का निरसन होता है जिस के द्वारा नीलादि संवेदनमय सिद्ध किया जाता है। तथा संवेदन इस हेतु से वे ही नीलादि की विधिरूप से बोधरूपता । सिद्ध की जाती है, इस प्रकार दोनों हेतुओं की कारवाई अलग अलग हैं, हाँ यहाँ व्यवहारभेद है, 25 परमार्थ से कोई भेद नहीं है। दोनों हेतु स्वभावहेतु होने से नील एवं संवेदन को अबोधभिन्न मान कर सहोपलम्भनियम से नीलादि में बोधरूपता सिद्ध की जाती है। एक बार (यानी एक साथ) उपलब्ध नील-बोध में ग्राह्य-ग्राहकभाव मानना योग्य नहीं, क्योंकि उन दोनों से अतिरिक्त कोई ग्रहणक्रिया है ही नहीं। चन्द्रद्वय में जैसे अन्योन्य भेद नहीं होता वैसे नीलादि का भी बोध से भेद नहीं है यह पहले कहा जा चुका है। ग्रहणक्रियानिषेध से ग्राह्य-ग्राहकभाव का निषेध फलित होने से नीलादि 30 स्वसंविदितस्वरूप ही सिद्ध होते हैं। अतः जैसे चन्द्रद्वय में द्वित्व (यानी भेद दिखने पर भी अभेद) होता है वैसे ही नील और बुद्धि में परस्पर स्वरूपभेद दिखता हो फिर भी बोधात्मक होने से,
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