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________________ १३२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ तद्धियोरभेदे एकरूपोपलम्भात (न) सिध्यत्येव । तथा, संवेदनादप्यभेदः सिद्धः। नीलादीनां प्रत्यक्षं च स्वरूपं संवेदनमुच्यते, विज्ञानस्यापि ह्यपरोक्ष(ता) तभेदात् तदर्थस्य 'सह' शब्दस्यावृत्तियुक्ता परमार्थतोऽभेदेऽपि ?? ___ यद्वा एकस्मिन्नप्यर्थे सहशब्दो दृष्ट एव यथा ‘सहदेशोऽयमस्माकम्' इत्येकरूपोपलब्धिरेकत्वेन व्याप्ता 5 प्रत्यक्षत एव ते गता। ततो न विरुद्धत्वम् विपर्ययव्याप्तेरभावात् । यदप्युक्तम् (१०६-१) - ‘एकरूपोप लब्धिर्विज्ञानस्यार्थस्य, वा प्रथमपक्षेऽपि बौद्धं प्रति...' इति तदपि निराकृतमेव, नीलतबुद्ध्योरेकोपलम्भस्य प्रतिपादितत्वात्, विवादश्च तयोर्भेदाभेदौ प्रति न स्वरूपं प्रति, तस्य सिद्धत्वात् । न चैकरूपोपलम्भस्तयोरध्यक्षसिद्धो वचनमात्रादेवासिद्धो भवति। तस्मान्नीलतद्धियोरभेद एकरूपोपलम्भात् सिध्यत्येव। (तथा संवेदनादप्यभेद: सिद्धः। नीलादीनां प्रत्यक्षं च स्वरूपं संवेदनमुच्यते। विज्ञानस्यापि}(ह्यभेद: सिद्धः 10 नीलादीनां प्रत्यक्षं च स्वरूपं संवेदनमुच्यते)ऽ(?)विज्ञानस्यापि ह्यपरोक्षमेव स्वरूपं संवेदनतद्व्यतिरिक्तस्य तो अभेद ही है। यदि पूछा जाय कि भले भेद विकल्पारूढ हो विकल्प उल्लिखित हो, सत्य क्यों नहीं ? उत्तर यह है कि विकल्प वास्तवस्वरूपस्पर्शी नहीं होता। वास्तव में तो नील और बुद्धि का अभेद होने से एक ही तत्त्व का उपलम्भ होने के कारण भेद सिद्ध ही नहीं है। तदुपरांत, संवेदन से भी अभेद सिद्ध होता है, नीलादि का प्रत्यक्ष स्वरूप ही 'संवेदन 15 जाता है, एवं विज्ञान अपरोक्षरूप होता है, इन दो में (वास्तव में अभेद होने पर भी विकल्पकृत) भेद होने से 'सह' शब्द की आवृत्ति (यानी प्रयोग) करना अयुक्त नहीं, यद्यपि वहाँ वास्तव में तो अभेद ही जीवंत है। [ एक अर्थ में 'सह' शब्दप्रयोग की संगति ] अथवा दूसरा समाधान :- एक ही अर्थ में भी 'सह' शब्दप्रयोग दिखता ही है। जैसे, 'यह हमारा 20 सह-देश है' – इस का मतलब है 'यह हम सभी का एक ही देश है'। इस प्रकार एकत्व अविनाभावि एकरूप की उपलब्धि प्रत्यक्ष से ही आप को ज्ञात होती है। अतः सहशब्दगर्भित हेतु में विरुद्धत्वदोष सम्भव नहीं है क्योंकि हेतु विपर्यय (यानी भेद) से व्याप्त नहीं। यह जो कहा था (३५३-१२) - ‘एकरूपोपलब्धि किस की ? विज्ञान की या अर्थ की ? पहले पक्ष में बौद्ध के प्रति ... (यानी बौद्ध के प्रतिवादी के प्रति हेतु-असिद्धि होगी क्योंकि वह अर्थ की 25 भी उपलब्धि मानता है... इत्यादि',) यह सब निरस्त हो जाता है - क्योंकि पूर्वपरिच्छेदों में हमने नील और उस की बुद्धि के एक उपलम्भ का प्रदर्शन कर दिया है। विवाद एकोपलम्भस्वरूप का नहीं है, किन्तु एकोपलब्धिवाले नील और ज्ञान के भेद या अभेद का है, एकउपलम्भ स्वरूप तो दोनों का सिद्ध ही है। नील और बुद्धि का एक उपलम्भ प्रत्यक्ष सिद्ध है तब ‘असिद्ध' ऐसे आरोपमात्र से वह असिद्ध नहीं हो सकता। अतः नील और बुद्धि का अभेद एकरूप उपलम्भ हेतु से सिद्ध होता है। [ संवेदनस्वरूप होने से दोनों में अभेद सिद्ध ] (तथा संवेदना... विज्ञानस्यापि - यह पाठ पूर्वपरिच्छेद में आ चुका है उस का यहाँ पुनरावर्तन लगता है, तथा विज्ञानस्यापि... के बाद लगता है कि फिर से नीलादीनां ... विज्ञानस्यापि... पुनर्मुद्रण ॐ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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