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________________ खण्ड-३, गाथा-५ एवं स्वै रूपोपलम्भाच्चैकत्वव्यवहारः, अन्यथा तदयोगात्। सर्वे चात्र नीलादयोऽभिन्नरूपोपलम्भा एकत्र(?त्व)व्यवहारे साध्ये स्वरू(पा)पेक्षया दृष्टान्तीभवन्तीति दृष्टान्तसिद्धिरपि न प्रेरणीया। न च संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिरयं हेतुः अभिन्नोपलम्भेपि भेदे सर्वत्राभेदोच्छेदप्रसक्तेः। __ यदपि 'भेदेप्येकसामग्र्यधीनतया नील-तद्धियोः सहोपलम्भः' इत्युक्तम् (१०४-८) (तदपि निरस्तं) दृष्टव्यम् भेदानवभासनेन तस्याभावात् । यदपि ‘रूपालोकयोः सहोपलम्भेऽपि भेदः' इत्युक्तम् (१०४-५) 5 तदप्यसम्यक्, यतो रूपालोकयोर्ययोरपृथगुपलम्भः भेदोऽपि तयोर्न सम्भवत्येव । यतो न नीलमालोको वा तद()पि निर्भागावर्ती पृथगभ्युपगम्यते प्रकाशात्मनो नीलस्यैवोत्पादात्। ययोः पुनर्भेदस्तयोरपृथगुपलम्भो नास्तीति नीलादिभिन्नस्याऽप्रत्यक्षरूपस्य तस्यानुपलम्भात् । यदप्युक्तम् 'सह'शब्ददृष्टत्वाद् विरुद्धो हेतुः' इति (१०५-८) तत्रापि विकल्पाढं भेदमाश्रित्य 'सह'शब्दः प्रयुक्तः परमार्थतस्तदभावेऽपि। अथ यदि भेदो विकल्परुल्लिख्यते किमिति सत्यो न ? वस्तुरूपाऽसंस्पर्शित्वात्। (न?) तत्र (?तच्च) नील- 10 प्रत्यक्षता नीलादि से पृथग् भासित् नहीं होती, यद्वा, नीलादि प्रत्यक्षता से पृथग भासित नहीं होता। इस तरह दोनों ही अपने अपने एकरूप से उपलब्ध होते हैं अतः उन का व्यवहार सम्भवित नहीं हो सकता। हमारा साध्य यही एकत्व-व्यवहार है और उस की सिद्धि के लिये अपृथग्रूप से उपलब्ध होनेवाले सभी नीलादि अपने अभिन्नरूप से दृष्टान्त बन सकते हैं अतः यहाँ दृष्टान्त असिद्धि की शंका भी नहीं करना । 15 __ तथा सहोपलम्भनियम हेतु में संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति की भी शंका नहीं करना, क्योंकि अभेद का । स्पष्ट उपलम्भ होने पर भी आप विपक्ष भेद की शंका करेंगे तो सुप्रसिद्ध अभेदोपलम्भवाले नील एवं नीलस्वरूप इत्यादि सभी स्थल में भी सर्वत्र भेद की (विपक्ष की) शंका करते रहने पर अभेद की कथा का ही उच्छेद सर्वत्र प्रसक्त होगा। [ सहोपलम्भ में भेद साधकता प्रयुक्त विरुद्धदोष का निरसन ] 20 यह जो कहा था कि (१०४-२९) - ‘भिन्न होने पर भी नील और बुद्धि दोनों एकसामग्रीनिष्पन्न होने से सहोपलम्भ होता है' – यह निरस्त समझ लेना। (क्यों कि हमने अभी हेतु की अनैकान्तिकता का निरसन कर दिया है।) भेद का अवभास ही नहीं है तो भेद कैसे होगा ? यह जो कहा था - (१०४-२४) 'रूप और आलोक का सहोपलम्भ होने पर भी भेद ही होता है' - यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि जिन नील रूप और आलोक का अपृथग् उपलम्भ होता है उन का भेद सम्भवित 25 भी नहीं ही होता। कारण, उस वक्त भी अपृथग्वर्ती नीलरूप और आलोक पृथक् पृथक् होने का हम नहीं मानते, वहाँ तो झीलमिल तेजोरूप चमकीले ही नील का जन्म मानते हैं। जहाँ नील और आलोक का भेद होता है वहाँ तो उन का अपृथग् उपलम्भ होता ही नहीं। कारण, वहाँ नीलादिभिन्न आलोक अप्रत्यक्ष होने से उस का उपलम्भ ही नहीं होता। यह जो कहा था - 'भेद में 'सह' शब्दप्रयोग होता है अतः सहोपलम्भ अभेद के बदले भेद का साधक होने से विरुद्ध हेतुदोष आया। (१०५- 30 २०)' - वहाँ (सहोपलम्भ हेतु पर) ध्यान देने पर पता चलेगा कि दर्शनगृहीत नहीं किन्तु विकल्प (जो कि मिथ्या होता है) उद्भासित भेद के लिये ही 'सह' शब्द प्रयुक्त किया गया है, परमार्थ से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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