SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ प्रतीतत्वात् नील-तद्धियोः कथं (न) सिद्धः सहोपलम्भनियम: ? ??मीमांसकमतमपि नीलं प्रत्यक्षं बुद्धिस्तु तद्धेतुभूता प्रवेश(तद्देश?)प्रत्यक्षान्यथाऽनुपपत्त्या पश्चात् प्रतीयते (१०४-१) इति सहोपलम्भतोऽसिद्ध इति प्राग दि(?नि)रस्तमेव । यदि(त्) तेनोक्तम्- पश्चादुपलभ्यते बुद्भिः (१०४-३) इति, तत्रापि बुद्धिप्रतीतिकाले यद्यर्थस्यापि प्रतीतिस्तदा द्वयोर्युगपदुपलम्भः स्यात् । न 5 चैतदिष्टम् इष्टो वा हेतुर्न सिद्धः। न च युगपदुपलभ्यमानयोः ग्राह्य-ग्राहकभावः सम्भवतीति ज्ञानमिति न सिद्धो(?द्ध्येत्)। यदि तु तदा नार्थप्रतिभास: तथापि केवलायास्तस्याः प्रतिभासनात् 'अर्थस्य बुद्धिः' इति न युक्तं भवेत्- इत्यादेः प्राक् प्रतिपादितत्वाद् नासिद्धो हेतुः। नाप्यनैकान्तिकः सर्वज्ञज्ञानस्य पृथगुपलम्भाद् भेदः, यत सर्व(ज्ञ)ज्ञानं पृथग्जनचित्ता(त्) पृथग् भाति पृथग्जनस्यापि स्वचित्तं सर्वविद्विज्ञानं विनापि भातीति भेदः, नील-तद्धियोस्तु न कदाचित् पृथगुपलम्भः 10 एकलोकी(ली)भावेन सर्वदोपलम्भात् । न हि नीलव्यतिरिक्ता या प्रत्यक्षता भाति तद्व्यतिरिक्तं वा नीलम तो प्रत्यक्षअर्थों का भान नहीं होगा, अर्थों का प्रत्यक्ष वेदन न होने पर सारे जगत् को अन्धापन आयेगा। सारांश, नील और नीलबुद्धि का अभेद सुप्रतीत है तब सहोपलम्भनियम कैसे असिद्ध होगा ? [ बुद्धिपरोक्षतावादी मीमांसक मत का निरसन ] मीमांसकों का मत भी निरस्त हो जाता है। उन का जो यह मत है कि नीलादि अर्थ प्रत्यक्ष 15 होता है किन्तु उस की हेतुभूत वह प्रत्यक्षबुद्धि खुद परोक्ष होती है जो तद्देशीय अर्थ की प्रत्यक्षता की अन्यथाअनुपपत्ति के द्वारा बाद में ज्ञात (= अनुमित) होती है। (१०४-१२)। अतः सहोपलम्भनियम असत् है। - इस मत का निरसन पहले (१०४-१४) हो चुका है। यह जो उसने कहा कि 'बुद्धि का उपलम्भ बाद में होता है' यहाँ भी आपत्ति यह है कि बाद में बुद्धि का जब उपलम्भ होता है तब यदि अर्थ का भी उपलम्भ होता है तब तो दोनों का सहोपलम्भ सिद्ध हो गया। आप को 20 तो यह इष्ट नहीं, अथवा पश्चादुपलम्भस्वरूप आप का इष्ट हेतु सिद्ध नहीं हुआ। तथा, एक साथ उपलब्ध होनेवाले नील और बुद्धि का ग्राह्य-ग्राहकभाव भी सम्भवित नहीं अतः बाद में भी ज्ञान सिद्ध नहीं होगा। यदि बुद्धि-उपलम्भ समान काल में अर्थ प्रतिभास न होकर केवल बुद्धि का ही प्रतिभास मानेंगे - तो ‘अर्थ की बुद्धि' ऐसा मानना अयुक्त हो जायेगा - इत्यादि पहले कई बार कह दिया है अतः सहोपम्भनियम हेतु असिद्ध नहीं है। 25 [ हेतु में अनैकान्तिकता या संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति दोषों का उद्धार ] हेतु तथा अनैकान्तिक (= साध्यद्रोही) भी नहीं है। यदि कहें कि - ‘आमजनता के चित्त का ग्रहण सर्वज्ञ ज्ञान से होता है वहाँ सर्वज्ञ ज्ञान और चित्त का भेद स्पष्ट है अतः आप का हेतु अभेद विरुद्ध भेदवत् सर्वज्ञज्ञान में रह जाने से साध्यद्रोही हो गया' - तो यह ठीक नहीं, आपने बताया वहाँ तो ज्ञान-ज्ञान में भेद है क्योंकि सर्वज्ञ ज्ञान आमजनता के चित्त (= ज्ञान) से पृथक् 30 ही प्रतीत होता है (यानी वहाँ सहोपलम्भ ही नहीं है।) आमजनता का चित्त भी सर्वज्ञज्ञान के विना भी प्रतीत होता है, जब कि नील और नीलबुद्धि का तो कभी भी पृथग् उपलम्भ नहीं होता किन्तु एकरस भाव से ही उनका सदाकाल उपलम्भ होता है। नील और बुद्धि एक ही होते हैं इसीलिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy