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________________ १३४ Sभेदः सहोपलम्भनियमात् । 5 अयं चार्थः स्वयमेव शास्त्रकृता स्पष्टीकृतः - “ न हि भिन्नावभासित्वेऽप्यर्थान्तरमेव रूपं नीलस्यानुभवात् ” [] इत्यनेन प्रतिभासभेदात् स्वरूपभेदेऽपि नीलस्यानुभवादर्थान्तरं जडतया विजातीयमेव रूपं न भवतीति यावत् स्वरूपभेदेऽपि प्रकाशरूपत्वात् । यदि तु सर्वात्मनील-तद्धियोरभेदः साध्य: तथा सति एवकारो न युक्तः, नार्थान्तरमेवमिदं वाच्यं स्यात्, प्रत्यक्षबाधश्च दुर्निवारो नीलादे: सुखादिरूपस्य बोधस्य भेदे साध्ये | यदा तु तयोर्भेदेऽपि साम्यं बोधरूपतया साध्यते तदा न कश्चिद् दोषः । रूपालोकयोरपि परस्परं न प्रकाश्य-प्रकाशकभावः सहोपलम्भनियमादेव । चित्त ( ? ) चैत्तानामपि स्वसंविद्रूपतैवेति न तैरपि व्यभिचारः, सर्वविदोऽपि स्वसंवेदन ( 1 ? ) मेव स्वसत्त्वं परचित्तत ( ? वे )दनं तु व्यवहारमात्रेण । विद्वताव ( ? व्यभिचारिता) दूरोत्सादितैव अस्मिन् व्याख्याने स्वरूपैकत्वाऽसाधनादेवाऽसिद्ध इति नैव सुखादेरतन्नी (रन्तर्नी) लादेर्बहि10 श्चावभासनात् तयोरेव ग्राह्य-ग्राहकभावाभावतः सहोपलम्भनियमात् स्वप्रकाशरूपता साध्यते व्यतिरिक्तस्य सहोपलम्भनियममूलक अभेद सिद्ध होता है। सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - १ [ भेदावभास के होने पर भी संवेदन से अभेद ] शास्त्रकार ने (?) स्वयं इस अर्थ का स्पष्टीकरण किया है 'नील का स्वरूप अनुभव से भिन्न नहीं है यद्यपि वह भिन्नतया भासित होता है ।' [ ] इस से फलित होता है कि प्रतिभासभेदमूलक 15 स्वरूप भेद के रहते हुए भी नील का स्वानुभव से भेद तथा जडता के जरिये वैजात्य होता नहीं, क्योंकि स्वरूपभेद होने पर भी प्रकाशरूपता अखंडित रहती है। यदि नील और उस की बुद्धि में सर्वात्मना अभेद सिद्ध करने जायेंगे तो वाक्य में 'एवकार' प्रयोग करना पडेगा, किन्तु वह युक्त नहीं है, ( क्योंकि 'एवकार' से फिर व्यवच्छेद किस का करेंगे ? 1 ) जकार के बिना इतना ही कहना चाहिये कि वुद्धि और नील अर्थान्तर नहीं है। दूसरी ओर, नीलादि और सुखादिबोध में सर्वथा भेद को 20 सिद्ध करने जायेंगे तो प्रत्यक्षबाधा दुर्निवार रहेगी। हाँ, उन दोनों में भेद के रहते हुए भी बोधरूपतया साम्य की सिद्धि करेंगे तो कोई दोष नहीं होगा । [ चित्त - चैत्तादि स्थल में व्यभिचार का वारण ] रूप- आलोक का दृष्टान्त दिया जाता है (भेदसिद्धि के लिये किन्तु वहाँ भी सहोपलम्भनियम के कारण परस्पर प्रकाश्य - प्रकाशकभाव सिद्ध नहीं हो सकता ( तो भेदसिद्धि कैसे होगी ? ) । चित्त एवं 25 चैत्त (= चित्त में प्रतिबिम्बित अर्थ ) स्थल में भी सहोपलम्भ हेतु को साध्यद्रोह दोष नहीं है, क्योंकि वे दोनों संवित्स्वरूप ही है । 'सर्वज्ञ के ज्ञान में अन्य संवेदनों का सहोपलम्भ होने पर भी भेद है' ऐसी बात नहीं है क्योंकि मुख्यतया सर्वज्ञ भी स्वसंवेदन का ही वेदन करते हैं ( स्वसंवेदन में प्रतिबिम्बित परकीय संवेदनों का स्वसंवेदनान्तर्गतरूप से ही वेदन करते हैं ) स्वतन्त्रतया परचित्त का वेदन करते हैं ऐसा प्रवाद व्यवहारमात्र है अतः इस स्थल में व्यभिचारिता दोष निरस्त हो जाता है। इस व्याख्यान 30 में ( स्वरूपतः भेद, संवेदनतः अभेद), सुखादि अन्तस्तत्त्वरूप से और नीलादि बहिस्तत्त्वरूप से भिन्न भासित होने के कारण सहोपलम्भनियम हेतु को असिद्ध नहीं कह सकते क्योंकि हमें संवेदनतः अभेद ही साध्य है न कि स्वरूपतः भेद, स्वरूपतः एकत्व तो हम मानते ही हैं। सुखादि नीलादि में ग्राह्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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