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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
जनयन्ती श्रुतिः स्वार्थमभिधत्त इत्युच्यते, न तु विभेदिनं सजातीयविजातीयव्यावृत्तं स्वलक्षणमेषा स्पृशति । तथाविधप्रतिबिम्बजनकत्वव्यतिरेकेण नापरा श्रुतेरभिधाक्रियाऽस्तीत्यर्थः । एवंभूते चापोहस्य स्वरूपे न परोक्तदूषणावकाशः ।
"तेन यदुक्तम्
'यदि गौरिति शब्दr' इत्यादि (पृ. ४३ पं. ६) तत्र गोबुद्धिमेव हि शब्दो जनयति, अन्यविश्लेषस्तु सामार्थ्याद् गम्यते न तु शब्दात्, तस्य गोप्रतिबिम्बस्य प्रतिभासान्तरात्मरहितत्वात् अन्यथा नियतरूपस्य प्रतिपत्तिरेव न स्यात् - तेनापरो ध्वनिर्गोबुद्धेर्जनको न मृग्यते, गोशब्देनैव गोबुद्धेर्जन्यमानत्वात् ।
यदपि 'ननु ज्ञानफलाः शब्दाः '... इत्यादि (पृ. ४३ पं. ८) कुमारिलवचनम् - तदप्यसारम् यतो यथा 'दिवा न भुंक्ते पीनो देवदत्तः' इत्यस्य वाक्यस्य साक्षाद् दिवाभोजनप्रतिषेधः स्वार्थः, अभिधानसामर्थ्यगम्यस्तु रात्रिभोजनविधिर्न साक्षात्, तद्वत् 'गौः' इत्यादेरन्वयप्रतिपादकस्य शब्दस्यान्वयज्ञानं साक्षात् फलम् व्यतिरेकगतिस्तु सामर्थ्यात् यस्मादन्वयो विधिरव्यतिरेकवान्नास्ति विजातीयव्यवच्छेदाव्यभिचारित्वात् तस्य । इत्येकज्ञानस्य फलद्वयमविरुद्धमेव । यतो यदि साक्षादेकस्य शब्दस्य विधि - प्रतिषेधज्ञानलक्षणं फलद्वयं युगपदभिप्रेतं स्यात् तदा भवेद् विरोधः, यदा तु दिवाभोजनवाक्यवदेकं साक्षात् अपरं सामर्थ्यलभ्यं फलमभीष्टं तदा को विरोधः ?
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को जन्म देने वाली श्रुति अपने अर्थ का अभिधान करती है । सर्वथा भिन्न स्वभाववाले सर्व सजातीयों और विजातीयों से व्यावृत्त स्वलक्षण को तो वह स्पर्श भी नहीं करती है । विकल्प में बाह्यार्थ के प्रतिबिम्ब को उत्पन्न करने के अलावा और कोई अभिधान क्रिया श्रुति की नहीं होती । इस ढंग से निरूपित अपोह के स्वरूप में किसी भी अन्यकथित दूषण को अवकाश नहीं है ।
★ गो-बुद्धिजनन के लिये अन्य शब्द अनावश्यक ★
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इस प्रकार जब अपोहवाद युक्तिसिद्ध है तब पहले (पृ.४३ - २८) जो यह कहा था कि 'गोशब्द अन्यव्यावृत्तिपरक होने से, गोबुद्धि के लिये और कोई शब्द ढूँढना पडेगा' यह गलत है । कारण, 'गोशब्द तो गोबुद्धि ( गोरूप अर्थ के बुद्धिप्रतिबिम्ब) का जनक है ही, अन्यव्यावृत्ति तो शब्द से नहीं किन्तु प्रतिबिम्ब के सामर्थ्य से अर्थापत्ति से प्रतीत होती है क्योंकि वह गोप्रतिबिम्ब स्वयं अन्य अश्वादिप्रतिबिम्ब से व्यावृत्त होता है, यदि अन्य व्यावृत्तरूप से 'गो' की प्रतीति नहीं मानेंगे तब तो 'यह गो ही है' ऐसी नियतस्वरूप की प्रतीति ही नहीं हो सकेगी । तात्पर्य, गोबुद्धि गोशब्द से ही जन्य होने से गोबुद्धिजनक और किसी शब्द ढूँढना नहीं पडेगा ।
कुमारिलने जो यह कहा था " शब्द ज्ञानफल होते हैं", किन्तु निषेधकारक या विधायक एक शब्द से एकसाथ अनुवृत्ति और व्यावृत्ति विषयक दो बुद्धि नहीं होती है... इत्यादि " - यह भी निःसार है । कारण, जैसे "स्थूल देवदत्त दिन में नहीं खाता" इस वाक्य का साक्षात् अर्थ दिवाभोजन निषेध है जो उस का स्वार्थ कहा जाता है, तथा अपने अर्थ के प्रतिपादन का यह सामर्थ्य होता है कि उस से रात्रिभोजन का निरूपण अर्थात् हो जाता है भले साक्षात् न हो । ठीक इसी तरह अन्वयप्रतिपादक 'गो' शब्द का साक्षात् फल अन्वय का ज्ञान होता है कि 'यह गौ है'; किन्तु अश्वादिव्यावृत्ति का भान तो उस के सामर्थ्य से होता है । कारण, व्यतिरेक के विना अन्वय के विधि का भान शक्य ही नहीं होता, विजातीय व्यवच्छेद का नियमतः सहचारी
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