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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
यच्चोक्तम् - 'प्रागगौरिति' (पृ. ४३ पं.१०) ज्ञानम् इत्यादि तदपि निरस्तम्, अनभ्युपगमात् । न हागोप्रतिषेधमाभिमुख्येन गोशब्दः करोतीत्यभ्युपगतमस्माभिः । किं तर्हि ? सामर्थ्यादिति ।
यच्वोक्तम् - 'अगोनिवृत्तिः सामान्यम्' इत्यादि (पृ. ४६ पं. २) तदप्यसत्, बाह्यरूपतयाऽध्यस्तो बुद्धयाकारः सर्वत्र शाबलेयादौ 'गौढ़ेंः' इति समानरूपतयावभासनात् सामान्यमित्युच्यते । बाह्यवस्तुरूपत्वमपि तस्य भ्रान्तप्रतिपत्तृवशाद् व्यवहियते, न परमार्थतः ।
ननु च यदि कदाचित् मुख्यं वस्तुभूतं सामान्यं बाहावस्त्वाश्रितमुपलब्धं भवेत् तदा तत्साधर्म्यदर्शनात् तत्र सामान्यभ्रान्तिर्भवेत् यावता मुख्यार्थासम्भवे सैव भवतामनुपपन्ना । असदेतत् - साधर्म्यदर्शनाद्यनपेक्षद्विचन्द्रादिज्ञानवत् अन्तरुपप्लवादपि तज्ज्ञानसम्भवात् । न हि सर्वा भ्रान्तयः साध
Hदर्शनादेव भवन्ति । किं तर्हि - अन्तरुपप्लवादपीत्यदोषः, इति सिद्धसाध्यतादोषो न भवति (पृ. ४५ पं०-१३) । स एव बुद्धयाकारो बाह्यतयाऽध्यस्तोऽपोहो बाह्यवस्तुभूतं सामान्यमिवोच्यते वस्तुअन्वय होने से एक के ज्ञान से अन्य का भान - इस प्रकार दो फल में कोई विरोध नहीं है । हाँ, एक ही शब्द से विधि-प्रतिषेध उभय ज्ञान को एक साथ यदि हम मानते तो विरोध को अवकाश था, किन्तु जब दिवाभोजननिषेधवाक्य की तरह एक अर्थ का साक्षात् और दूसरे का सामर्थ्य से बोध फल मानते हैं तो किसी भी विरोध को अवकाश नहीं है।
यह जो कहा था कि – (पृ० ४४ पं० १९) 'गो' शब्द को सुन कर पहले 'अगो' का भान होगा'.....इत्यादि वह भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि हम 'गोशब्द अगोव्यवच्छेद का साक्षात् भान कराता है ऐसा मानते ही नहीं । हम तो 'गोबुद्धि' को गोशब्द से साक्षात् जन्य मान कर सामर्थ्य से ही व्यावृत्ति का भान मानते हैं ।
तथा यह जो कहा था - "आप गोशब्द से अगोनिवृत्तिरूप सामान्य को वाच्य मानते हैं उस का मतलब भावरूप सामान्य को वाच्य मानते हैं.....इत्यादि (पृ० ४६ पं० १७)" वह भी गलत है । कारण, हम सामान्य को निवृत्ति रूप नहीं मानते किन्तु बाह्यस्वस्तुरूप से अध्यस्त बोधाकार ही शाबलेयादिपिण्डों में 'यह गौ है - यह गौ है इस प्रकार समानधर्मरूप से भासता हुआ हमारे मत में सामान्य कहा जाता है । वस्तुत: वह बाह्य नहीं है फिर भी भ्रान्त बुद्धिवाले लोगों को बाह्यरूप से दिखता है इसलिये उस का बाह्यरूप से व्यवहार चलता है । परमार्थ से वह बाह्य नहीं होता ।
★ मुख्यार्थ के विना भी सामान्यभ्रान्ति ★ शंका : बाह्य वस्तुओं में मुख्य वास्तविक सामान्य किसी समय किसी को अगर उपलब्ध रहता है तब उस के साधर्म्य को देख कर अन्य असामान्यभूत पदार्थ में सामान्य की भ्रान्ति होना ठीक है । लेकिन आप के अपोहवाद में तो ऐसा कोई मुख्य वास्तविक सामान्य संमत नहीं है तो फिर अर्थप्रतिबिम्ब में सामान्य का भ्रान्त अध्यवसाय कैसे घटेगा ?
उत्तर : यह शंका गलत है। साधर्म्य दर्शन के विना भी आन्तरिक दोष की महिमा से सामान्य की भ्रान्ति हो सकती है, जैसे गगन में कभी किसीने दो चन्द्र नहीं देखा, फिर भी (उस के साधर्म्य दर्शन के विना) गगन में दो चन्द्र का भ्रान्त दर्शन दूषित नेत्र से होता ही है । ऐसा नहीं है कि सभी भ्रान्तियाँ साधर्म्य को देख कर ही होवे । तो कैसे होती है ? आन्तरिक यानी करणगत दोषों के उपद्रव से भी भ्रान्ति होती
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