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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रूपत्वेनाध्यवसायात्, शब्दार्थत्वापोहरूपत्वयोः प्रागेव कारणमुक्तम् - "बाह्यार्थाध्यवसायिन्या बुद्धेः शब्दात् समुद्भवात्" (पृ. ७७ पं० ६) "प्रतिभासान्तराद् भेदात्" (पृ० ७६ पं० १०) इत्यादिना । कस्मात् पुनः परमार्थतः सामान्यमसौ न भवति ? बुद्धेरव्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् । तदुक्तम् - 'ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत्।' न च भवद्भिर्बुद्धयाकारो गोत्वाख्यं सामान्यं वस्तुरूपमिष्टम्। किं तर्हि ? बाह्यशाबलेयादिगतमेकमनुगामि गोत्वादि सामान्यमुपकल्पितम् अतः कुतः सिद्धसाध्यता ।
यच्चोक्तम् - 'निषेधमात्ररूपश्च' इत्यादि (पृ. ४६ पं० ६), तस्यानभ्युपगतत्वादेव न दोषः । यच्चेदमुक्तम् - 'तस्यां चाश्वादिबुद्धीनाम्' (पृ. ४६ पं० ७) इत्यादि, तदप्यसत् - यतः उक्तम् (त.सं. का.१०२६) “यद्यप्यव्यतिरिक्तोऽयमाकारो बुद्धिरूपतः । तथापि बाह्यरूपत्वं भ्रान्तैस्तस्यावसीयते ॥"
___ यदपि 'शब्दार्थोऽर्थानपेक्षः' (पृ. ४७ पं० ८). इति, तत्र - यत्र हि पारम्पर्याद् वस्तुनि है। इसलिये मुख्य सामान्य न मानने पर कोई दोष नहीं है और सामान्य की भ्रान्ति की उपपत्ति के लिये मुख्य सामान्य की सिद्धि मानने पर होने वाले सिद्धसाध्यता दोष को भी अब अवकाश नहीं है। हमारे मत में तो बाह्यवस्तुरूप में अध्यस्त बोधाकारात्मक अपोह को ही अन्यदर्शनस्वीकृत बाह्यवस्तुरूप सामान्य के जैसा माना गया है, क्योंकि उस का बाह्य वस्तु के रूप में भ्रमात्मक भान होता है । ऐसे बोधाकार को हम क्यों शब्दार्थरूप और अपोहरूप मानते हैं इस का कारण तो पहले ही हमने यह कह कर के दिखाया है कि (पृ० ७७ पं० २३) बाह्यार्थाध्यवसायि बुद्धि शब्द से उत्पन्न होती है इसलिये जन्य-जनकभावात्मक वाच्य-वाचकभावसम्बन्ध से उस बुद्धि-आकार को शब्दार्थ कहा जाता है । एवं अन्य अर्थप्रतिभास से स्वत:व्यावृत भासता होने के कारण उस को अपोहरूप कहा जाता है । (पृ० ७६ पं० २९)
'आप क्यों उस को पारमार्थिक सामान्यरूप से नहीं मान लेते ?' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि बुद्धिआकार रूप अपोह बुद्धि से अभिन्न होने से अन्य अर्थों में उस की अनुवृत्ति शक्य नहीं है । कहा है कि - 'जो ज्ञान से अपृथक् है वह अन्य अर्थ के प्रति कैसे जायेगा ?'
____ 'आपने बुद्धिआकार को गोत्वसंज्ञक सामान्य वस्तु तत्त्व रूप नहीं माना है। तो क्या माना है ? बाह्य शाबलेय-बाहुलेय पिण्डों में अनुयायि एक गोत्वसामान्य को माना है जो बुद्धि-आकार रूप नहीं है । तो फिर सिद्धसाध्यता कैसे होगी ?।'
* विविध आक्षेपों का प्रत्युत्तर ★ यह जो कहा था - 'अपोह निषेधमात्रस्वरूप (प्रसज्यप्रतिषेधरूप) है (पृ. ४६ पं० २४)' – ऐसा तो हम मानते ही नहीं इस लिये वहाँ जो शून्यता में वाच्यत्व की आपत्ति कही गई है वह निरवकाश है । तथा यह जो कहा था - अधादिबुद्धि बाह्यवस्तुग्राही सिद्ध न होने से सिर्फ बुद्धि का अपना अंश ही ग्राह्य सिद्ध हुआ इत्यादि (पृ. ४६ पं० २६) - वह भी गलत है क्योंकि वह प्रतिबिम्बाकार बुद्धिस्वरूप से अपृथग् होने पर भी भ्रान्त लोगों को तो वह बाह्यरूप से ही अध्यवसित होता है । इसलिये बाह्यवस्तुग्राहिता सर्वथा असिद्ध नहीं है। * यह तत्त्वसंग्रह कारिका ९२० का अंश सम्मतिटीकाकारने पहले छोड़ दिया है. फिर भी यहाँ तत्त्वसंग्रह कारिका १०२६ की पंजिका
का अनुवाद करते समय उल्लेखित कर दिया है।
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