________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-२
प्रतिबन्धोऽस्ति तस्य भ्रान्तस्यापि सतो विकल्पस्य मणिप्रभायां मणिबुद्धिवद् न बाह्यार्थानपेक्षत्वमस्ति, अतोऽसिद्धं बाह्यार्थानपेक्षत्वम् । यच्च 'वस्तुरूपावभासा(रूपा च सा) बुद्धिः' (पृ० ४७ पं० २) इत्यादि, तत्र यद्यपि वस्तुरूपा सा बुद्धिस्तथापि तस्यास्तेन बाह्यात्मना बुद्धयन्तरात्मना च वस्तुत्वं नास्तीति प्रतिपादितम् (पृ. ७९ पं० १) । तेन 'बुद्धेर्बुद्धयन्तरापोहो न गम्यते' (पृ. ४७ पं० ११) इत्यसिद्धम् सामर्थ्येन गम्यमानत्वात् ।। ___'असत्यपि च बाह्येऽर्थे' (पृ. ४७ पं० ८) इत्यत्र यथैव हि प्रतिबिम्बात्मकः प्रतिभाख्योऽपोहो वाक्यार्थोऽस्माभिरुपवर्णितस्तथैव पदार्थोऽपि, यस्मात् पदादपि प्रतिविम्बात्मकोऽपोह उत्पद्यत एव, पदार्थोपि स एव, अतो न केवलं वाक्यार्थ इति विप्रतिपत्तेरभावाद् नोप(पा)लम्भो युक्तः ।।
'बुद्धयन्तराद् व्यवच्छेदो न बुद्धेः प्रतीयते' (पृ. ४७ पं० ११) इत्यादावपि, यत एव हि स्वरूपोत्पादनमात्रादन्यमंशं सा न बिभर्ति तत एव स्वभावव्यवस्थितत्वाद् बुद्धेर्बुद्धयन्तराद् व्यवच्छेदः प्रतीयते, अन्यथाऽन्यस्वरूपं बिभ्रती कथं ततो व्यवच्छिन्ना प्रतीयते ?
तथा यह जो कहते हैं - 'अर्थनिरपेक्ष अपोह को शब्दार्थ बताना अयुक्त है' - इस के लिये हमें यह कहना होगा कि जिस विकल्प को परम्परया भी वस्तु के साथ सम्बन्ध रहता है वह विकल्प भ्रान्त होने पर भी "मणिप्रभा में भ्रान्त मणिबुद्धि की तरह अर्थसापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं होता । इसलिये अर्थनिरपेक्षता असिद्ध है।
यह जो कहा है - 'बुद्धिरूप वस्तु ही वाच्य है, अपोह नहीं' इत्यादि (पृ. ४७ पं० १५) - वहाँ कहना होगा कि, यद्यपि वह वाच्यबुद्धि वस्तुरूप ही है फिर भी बाह्यार्थरूप से तो वह वस्तुरूप नहीं है, अन्यबुद्धिरूप से भी वस्तुरूप नहीं है, यह पहले ही स्पष्ट किया है। तात्पर्य यह है कि वाच्य वस्तुरूप बुद्धि अन्यबुद्धिरूप या बाह्यार्थरूप से अवस्तु यानी अपोहात्मक होने से यह जो कहा था कि 'एक बुद्धि में अन्य का अपोह ज्ञात नहीं होता' यह बात असिद्ध है, क्योंकि वह भी साक्षात् नहीं किन्तु सामर्थ्य से तो ज्ञात होता ही है यह पहले कह दिया है।
★ प्रतिभात्मक पदार्थ अपोहरूप भी है* यह जो कहा था - (पृ० ४७ पं० २३) 'बाह्यार्थ न होने पर भी वाक्यार्थ की तरह पदार्थ भी प्रतिभारूप प्रसक्त होता है न कि अपोहरूप ।' यह भी बिना समझे कहा है। कारण, हम वाक्यार्थरूप से प्रतिभा को दिखाते हैं वह पूर्ववर्णित प्रतिबिम्बात्मक अपोहरूप ही है और इसी तरह पद से भी प्रतिबिम्ब का उदय होता है और वही उस पद का वाच्य पदार्थ होता है जो कि पूर्ववर्णित रीति से अपोहरूप ही है, सिर्फ वाक्यार्थ ही मानते हैं ऐसा नहीं है इसलिये अब कोई विवाद नहीं रहता । जिस से कि हमें उपालम्भ दिया जा सके।
यह जो कहा था (पृ. ४७ पं० २७) 'एक बुद्धि अन्य बुद्धि से व्यावृत्त होने पर भी व्यावृत्ति उपलक्षित नहीं होती' - यहाँ भी कहना होगा कि अपने स्वरूप की उत्पत्ति के अलावा अन्य किसी भी अंश = स्वरूप को जब वह बुद्धि धारण नहीं करती है तो वह अन्यव्यावृत्ति उस के स्वभावगत हो जाने से वह बुद्धि जब भासमान होगी तब उस के साथ उस से अपृथक् अन्यव्यवच्छेद भी अवश्यमेव भासित होगा। ऐसा नहीं मानेंगे तो अन्यस्वरूप का धारण शंकास्पद रहने से, उस से व्यावृत्त हो कर वह स्वतन्त्ररूप से कैसे प्रतीत हो सकेगी ? * मणि की प्रभा में मणि का भ्रम साक्षात मणिग्राहक नहीं होता. किन्त भ्रम से प्रभा में प्रवत्त होने पर प्रभास
होती है- इसलिये भ्रम होने पर भी वह मणिनिरपेक्ष नहीं होता।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org