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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् 'भिन्नसामान्यवचना' ( पृ० ४८ पं० ३ ) इत्यादावपि यथैव ह्यपोहस्य निःस्वभावत्वादरूपस्य परस्परतो भेदो नास्तीत्युच्यते तथैवाऽभेदोऽपि इति कथमभिन्नार्थाभावे पर्यायत्वाऽऽसञ्जनं क्रियते ? अभेदो ह्येकरूपत्वम् तच्च नीरूपेष्वेकरूपत्वं नास्तीति न पर्यायता । ८४ स्यादेतत् 'यदि नाम नीरूपेष्वेकरूपत्वं भावो (१वतो) नास्ति तथापि काल्पनिकस्य तस्य भावात् पर्यायतासञ्जनं युक्तमेव' नन्वेवं पर्यायाऽपर्यायव्यवस्था शब्दानां कथं युक्ता ? उक्तं च (त.सं. १०३१३२) " रूपाभावेऽपि चैकत्वं कल्पनानिर्मितं यथा । विभेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः १ ॥ - भावतस्तु न पर्यायान (ना) पर्याय (या)श्व वाचकाः । न ह्येकं वाच्यमेतेषामनेकं चेति वर्णितम् ॥" यदि परमार्थतो भिन्नमभिन्नं वा किञ्चिद् वाच्यं वस्तु शब्दानां स्यात् तदा पर्यायाऽपर्यायता भवेत् यावता (१९-७) 'स्वलक्षणं जातिस्तद्योगो जातिमांस्तथा' (त० सं० ८७० ) इत्यादिना वर्णितम् यथैषां न किञ्चिद् वाच्यमस्तीति । पर्यायादिव्यवस्था तु अन्तरेणाऽपि सामान्यम् सामान्यादिशब्दत्वस्य व्यवस्थापनात् । तस्य चेदं निबन्धनं यद् बहूनामेकार्थक्रियाकारित्वम् प्रकृत्या केचिद् भावा बहवो - ऽप्येकार्थक्रियाकारिणो भवन्ति तेषामेकार्थक्रियासामर्थ्यप्रतिपादनाय व्यवहर्तृभिर्लाघवार्थमेकरूपाध्यारोपेणैका श्रुतिर्निवेश्यते यथा बहुषु रूपादिषु मधूदकाहरणलक्षणैकार्थक्रियासमर्थेषु 'घटः' इत्येका श्रुतिर्निवेश्यते । - - तथा, यह जो कहा था 'पृथक् पृथक् सामान्यवाची 'गो' आदि शब्द और विशेषवाची शाबलेयादि शब्द सभी का अर्थ अपोह होने पर सामान्य विशेषवाची शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची बन जायेंगे'.... इत्यादि यहाँ यह कहना है कि जब स्वभावहीन होने से अपोहों में परस्पर भेद का निषेध किया जाता है तो उसी तरह स्वभावरहित होने के कारण उनमें अभेद का भी निषेध क्यों नहीं होगा ? जब इस तरह अभिन्न अर्थ भी नहीं है तो फिर पर्यायवाची बन जाने की आपत्ति कैसे हो सकती है ?! अभेद का मतलब है एकरूपता । निःस्वरूप अर्थ में एकरूपता नहीं है इसलिये पर्यायता भी नहीं हो सकती । ★ सामान्य के विना भी पर्यायादिव्यवस्था ★ - - आशंका : हालाँकि निःस्वरूप अपोहों में भावात्मक यानी वास्तविकरूपता नहीं है फिर भी आप काल्पनिक एकरूपता को मानते हैं इसलिये हम पर्यायवाचिता का प्रसंजन करते हैं वह युक्त है । उत्तर : जब आप काल्पनिक एकरूपता पर पर्यायता का प्रसञ्जन करेंगे तो फिर पर्यायता- अपर्यायता की कोई नियत व्यवस्था कैसे घटेगी ? तत्त्वसंग्रह में कहा है कि " स्वरूप के विना भी जैसे एकत्व, कल्पना से स्वीकृत है तो कल्पना से ही विभेद भी स्वीकृत है तो पर्यायता कैसे आयेगी ॥ परमार्थ से तो कहा जाता है कि वाचकध्वनि न पर्याय है न अपर्याय है, एवं उनके वाच्य भी न एक हैं न अनेक हैं ।" Jain Educationa International इसी कथन को उस की व्याख्या में स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि पारमार्थिकरूप से भिन्न या अभिन्न ऐसी कोई शब्दों की वाच्य वस्तु होती तब तो वाचकध्वनियों में पर्यायता- अपर्यायता भी वास्तव में हो सकती थी । किन्तु पहले ही कह आये हैं कि स्वलक्षण, जाति, जाति का सम्बन्ध या जातिमान् इन में से कोई भी शब्दवाच्य नहीं है । तब लोकप्रसिद्ध पर्यायादि व्यवस्था कैसे होगी ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सामान्य के न होने पर - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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