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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ कयं पुनरेकेनानुगामिना विना बहुष्वेका श्रुतिर्नियोक्तुं शक्या ? इति न वक्तव्यम्, इच्छामात्रप्रतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्य । तथाहि - चक्षुरूपाऽऽलोक-मनस्कारेषु रूपविज्ञानैकफलेषु यदि कश्चिद् विनाप्येकेनानुगामिना सामान्येनेच्छावशादेका श्रुतिं निवेश्येत् तत् किं तस्य कश्चित् प्रतिरोद्धा भवेत् ? न हि तेषु लोचनादिष्वेकं चक्षुर्विज्ञानजनकत्वं सामान्यमस्ति यतः सामान्य-समवाय-विशेषा अपि भवद्भिः चक्षुर्ज्ञानजनका अभ्युपगम्यन्ते, न च तेषु सामान्यसमवायोऽस्ति निःसामान्यत्वात् सामान्यस्य, समवायस्य च द्वितीयसमवायाभावात् ।
न च घटादिकार्यस्योदकाहरणादेस्तज्ज्ञानस्य च स्वलक्षणरूपत्वेन भिन्नत्वात् कथमेककार्यकारिभी यह शब्द सामान्यवाचक है ऐसी व्यवस्था का निमित्त यह है - अनेक वस्तु का एक-अर्थक्रिया-कारित्व । स्वभाव से ही कुछ पदार्थों की अर्थक्रिया एकसी होती है । व्यवहारी लोग उन का एक-अर्थक्रिया-कारित्व दिखाने में लाघव करने के लिये एकरूपता का अध्यारोप कर के एक शब्द को नियत करते हैं । उदा० रूप-रस-मिट्टी-आकार आदि अनेक वस्तुसमूह मधु-आनयन या जलानयन आदि एक अर्थक्रिया मिल कर करते हैं तो उनमें घटत्व का अध्यारोप कर के 'घट' शब्द से उन का व्यवहार करते हैं ।
प्रश्न : जब उन में कोई वास्तविक एक अनुगत घटत्वादि है ही नहीं तो एक शब्द को नियत कैसे कर सकते हैं ?
उत्तर : ऐसा पूछने की जरूर नहीं है । स्वयं देखिये - शब्दों का अर्थों के साथ प्रतिनियत भाव इच्छाधीन ही होता है । जैसे चक्षु, रूप, प्रकाश और मन आदि एक ही रूपविज्ञान को उत्पन्न करते हैं, यह देख कर उन में कोई सामान्य न होने पर भी स्वतन्त्र इच्छा से कोई उन के लिये एक ही शब्द का प्रयोग करे तो क्या कोई उसे रोक सकता है ? जानते ही हैं कि लोचन आदि में कोई एक चाक्षुषज्ञानजनकत्व सामान्य नहीं है। आपके मत से सामान्य, समवाय (संनिकर्ष) और विशेष ये सब चाक्षुषज्ञानजनक माने जाते हैं; उन में किसी एक सामान्य का समवाय तो होता नहीं है । कारण, सामान्य में सामान्य अनवस्था के कारण नहीं माना जाता और समवाय का दूसरा समवाय भी नहीं माना जाता ।
★ घटादिस्वलक्षण में एककार्यकारित्व असिद्ध नहीं ★ प्रश्न : घटादि को एककार्यकारी कैसे कह सकते हैं ? जब कि उस के कार्य जलानयन या तत्तद्विषयक ज्ञान तो स्वलक्षणरूप होने से प्रतिक्षण एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हैं ?
उत्तर : ऐसा मत पूछीये । कारण, यह ठीक है कि स्वलक्षण का भेद होने से तद्रूप कार्य भी भिन्न भिन्न होता है, फिर भी जो ज्ञानरूप कार्य है वह प्रतिक्षण पृथक् पृथक् होने पर भी 'एक ही अर्थ को देख रहा हूँ' ऐसे एकार्थाध्यवसायि परामर्शप्रत्यय का हेतु बनता है इसलिये उसको एक माना जा सकता है; एवं एकार्थाध्यावसायि प्रत्यय के हेतु होने वाले घटादि अर्थों को भी अभिन्न कहा जाता है। यदि ऐसा कहें कि - "जो यह परामर्श प्रत्यय है वह भी स्वलक्षणरूप होने से दूसरे प्रत्ययों से सर्वथा भिन्न ही होता है इस लिये उन में एकत्व असिद्ध है। यदि उनमें एकत्व दिखाने के लिये अन्य अन्य एकार्थाध्यवसायि परामर्शप्रत्ययों का आधार लिया जायेगा तो अनवस्था दोष लगेगा । इसलिये ज्ञानरूप कार्य भी एक सिद्ध न होने से कहीं भी अनेकों में एक शब्द को नियत करने की बात संगत नहीं हो सकती ।" - तो यह ठीक नहीं है । कारण,
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