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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् ८६ त्वम् ? इति वक्तव्यम्, यतो यद्यपि स्वलक्षणभेदात् तत्कार्यं भिद्यते तथापि ज्ञानाख्यं तावत् कार्यमेकार्थाध्यवसायिपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वादेकम्, तज्ज्ञानहेतुत्वाच्चार्था घटादयोऽभेदिन इत्युच्यन्ते । न च योऽसौ परामर्शप्रत्ययस्तस्यापि स्वलक्षणरूपतया भिद्यमानत्वादेकत्वाऽसिद्धेरपरापरैकाकारपरामर्शप्रत्ययकार्यानुसरणतोऽनवस्थाप्रसङ्गतो ने ( नै ) ककार्यतया क्वचिदेकश्रुतिनिवेशो बहुषु सिद्धिमुपगच्छतीति वाच्यम्, यतो न परामर्शप्रत्ययस्यैककार्यकारितयैकत्वमुच्यते, किं तर्हि ? एकाध्यवसायितया स्वयमेव परामर्शप्र - त्ययानामेकत्वसिद्धेर्नानवस्थाद्वारेणैकश्रुतिनिवेशाभावः, अत एकाकारपरामर्शहेतुत्वाद् ज्ञानाख्यं कार्यमेकम्, तद्धेतुत्वाद् घटादय एकत्वव्यपदेशभाजः । तेन, विनापि वस्तुभूतं सामान्यं, सामान्यवचना घटादयः सिद्धिमासादयन्ति । तथा, कश्चिदेकोऽपि प्रकृत्यैव सामग्ग्रन्तरान्तः पातंवशादनेकार्थक्रियाकारी भवति व्यतिरेकेणापि वस्तुभूतसामान्यधर्मभेदम् । तत्रातत्कार्यपदार्थभेदभूयस्त्वात् अनेकश्रुतिसमावेशः अनेकधर्मसमारोपात् । यथा स्वदेशे परस्योत्पत्तिप्रतिबन्धकारित्वाद् रूपं सप्रतिघम् सह निदर्शनेन चक्षुर्ज्ञानजनकत्वेन वर्त्तते इति सनिदर्शनं च तदेवोच्यते, यथा वा शब्द एकोऽपि प्रयत्नाऽनन्तरज्ञानफलतया 'प्रयत्नाऽनन्तरः' इत्युच्यते, श्रोत्रज्ञानफलत्वाच्च श्रावणः 'श्रुतिः श्रवणं श्रोतृ (त्र ) ज्ञानम् तत्प्रतिभासतया तत्र भवः श्रावणः, परामर्शप्रत्ययों का एकत्व एककार्य कारिता के आधार पर हम नहीं दिखाते । तो कैसे दिखाते हैं ? सभी परामर्श प्रत्यय एकार्थाध्यवसायि होते हैं - इसी से स्वयमेव उसमें एकत्व सिद्ध होता है । इस लिये अनवस्था दोष दिखा कर एक शब्दप्रयोग को नियत करने की बात असंगत नहीं, संगत ही है। तात्पर्य यह है कि एकाकार परामर्शप्रत्यय का हेतु होने वाला ज्ञानरूप घटादिजन्य कार्य एक कहा जाता है। तथा, वैसे एक कार्य करनेवाले घटादि अर्थों में भी एकत्व का व्यवहार होता है । इस प्रकार, वस्तुभूत सामान्य न मानने पर भी सामान्यवाची घटादिशब्दों की संगति- - व्यवस्था सिद्ध होती है । - Jain Educationa International - ★ सामान्यभेद विना भी विविध अर्थक्रिया ★ तदुपरांत, ऐसा भी होता है कि व्यक्ति एक हो फिर भी स्वभावतः भिन्न भिन्न कार्यसामग्री में कालभेद से जुट जाने पर अनेक विविध अर्थक्रिया करने लगता है। हालाँ कि उस में भिन्न भिन्न कार्य के प्रयोजक कोई वास्तविक सामान्यभेद होता नहीं है फिर भी स्वकार्य से भिन्न अतत्कार्य ( = अस्वकार्य ) भूत पदार्थ के भेद यानी व्यावृत्ति अनेक होने से उस एक व्यक्ति में अनेक धर्मों के समारोप होने के कारण, एक ही व्यक्ति में अनेक शब्दों का निवेश किया जाता है। देखिये - एक ही रूप को सप्रतिघ भी कहा जाता है और सनिदर्शन भी कहा जाता है । सप्रतिघ इसलिये कि वह अपने उपादानदेश में दूसरे रूप की उत्पत्ति का अवरोध करता है । सनिदर्शन ( यानी निदर्शनवाला) इसलिये कि वह चाक्षुषज्ञानरूप निदर्शन का जन्मदाता है । अथवा शब्द का उदाहरण देखिये - शब्दज्ञान से शब्दोत्पादक प्रयत्न होता है तो उस प्रयत्न से शब्दज्ञान के फलरूप शब्द का जन्म होता है इसलिये शब्द को प्रयत्नानन्तर ( = प्रयत्नजन्य) कहा जाता है । उसी शब्द को श्रावण भी कहा जाता है । 'श्रावण' के दो अर्थ संभवित है- १. श्रुति श्रवण या श्रोत्रज्ञान ये सब एकार्थक हैं, श्रवण में प्रतिभासित होने के कारण तद्भव शब्द को 'श्रावण' कह सकते हैं, २ अथवा श्रवण ( = श्रोत्रज्ञान) उस का फल है इसलिये भी शब्द को श्रावण कह सकते हैं। इस प्रकार अतत्कार्यभेद की बहुलता के कारण एक For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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