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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ ८७ यद्वा श्रवणेन गृह्यत इति श्रावणः' - एवमतत्कार्यभेदेनैकस्मिन्नप्यनेका श्रुतिनिवेश्यमानाऽविरुद्धा । अतत्कारणभेदेनापि क्वचित् तनिवेशः, यथा भ्रामरं मधु क्षुद्रादिकृतमधुनो व्यावृत्त्या । तथा तत्कार्यकारणपदार्थव्यवच्छेदमात्रप्रतिपादनेच्छया अन्तरेणापि सामान्यं श्रुतेर्भेदेन निवेशनं सम्भवति - अश्रावणं यथा रूपं विद्युद्वाऽयत्नजा यथा ॥ [त. सं. का. १०४२] इत्यादिना प्रभेदेन विभिन्नार्थनिबन्धनाः । व्यावृत्तयः प्रकल्प्यन्ते तनिष्टाः(ठाः) श्रुतयस्तथा ॥ १०४३ ॥ यथासंकेतमेवातोऽसंकीर्णाभिधायिनः । शब्दा विवेकतो वृत्ताः पर्याया न भवन्ति न (नः) ॥ १०४४) ॥ श्रोत्रज्ञानफलशब्दव्यवच्छेदेन 'अश्रावणं रूपम्' इत्युच्यते, प्रयत्नकारणघटादिपदार्थव्यवच्छेदेन 'विद्युप्रयत्नजा' इत्यभिधीयते । अन्तरेणाऽपि सामान्यादिकं वस्तुभूतम् व्यावृत्तिकृतमेव शब्दानां भेदेन निवेशनं सिद्धम्, पर्यायत्वप्रसंगाभावश्च विभिन्नार्थनिबन्धनव्यावृत्तिनिष्ट(ठ)त्वे श्रुतीनां सिद्धः । स्यादेतत् - मा भूत पर्यायत्वमेषाम् अर्थभेदस्य कल्पितत्वात्, सामान्यविशेषवाचित्वव्यवस्था तु विना सामान्य-विशेषाभ्यां कथमेषाम् ? उच्यते - (तत्त्वसं. का. १०४५) ही व्यक्ति में अनेक शब्दों का निवेश अविरुद्ध है । अतत्कार्यभेद की तरह अतत्कारणभेद की बहुलता से भी एक व्यक्ति में अनेक शब्दों का निवेश होता है, जैसे - मध के अपने अनेक कारण है, भ्रमर, मधमक्खी, कुन्ती (आदि क्षुद्रजन्तु) । वे सब परस्पर भिन्न होने से उन सभी में भिन्न भिन्न अतत्कारणव्यावृत्ति रहती है इस लिये मध के लिये भ्रामर, माक्षिक, क्षौद्र आदि अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। कभी कभी तो सामान्य के विना भी सिर्फ अतत्कार्यपदार्थव्यावृत्ति मात्र के या अतत्कारणपदार्थव्यावृत्तिमात्र के प्रतिपादन की इच्छा से ही नगर्भित शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे . "रूप में श्रोत्रज्ञानफलकशब्द की व्यावृत्तिमात्र दिखाने के लिये रूप को 'अश्रावण' कहा जाता है । अथवा प्रयत्नकारणक घटादि की व्यावृत्तिमात्र को दिखाने के लिये बिजली को 'अयत्नजा' कहा जाता है।" ___"इस प्रकार व्यावृत्तअर्थमूलक भिन्नता जैसे व्यावृत्तिओं में प्रकल्पित हैं वैसे ही व्यावृत्तार्थ में निवेशित शब्दों में भी भिन्नता हो सकती है' व्यावृत्तिभेद के कारण संकेत के अनुसार शब्द भी पृथक् पृथक् असंकीर्ण अर्थों का अभिधान करने में सविवेक हैं इसलिये हमारे पक्ष में पर्यायवाचिता के प्रसंग को कोई अवकाश नहीं सारांश यह है कि श्रोत्रज्ञानफलकशब्द का निषेध करने के लिये रूप को 'अश्रावण' कहा जाता है । प्रयत्नमूलक घटादि पदार्थ के निषेधार्थ बीजली को 'अप्रयत्नजा' कहते हैं । इस प्रकार वास्तविक सामान्य के न होने पर भी व्यावृत्ति के जरिये शब्दों का भिन्न भिन्न अर्थ में निवेश होता है । तथा, व्यावृत्तार्थमूलक व्यावृत्तियों से अधिष्ठित होने के कारण शब्दों में – यानी गवादिशब्द और शाबलेयादिशब्दों में पर्यायवाचिता को अवकाश असिद्ध है। प्रश्न : पर्यायवाचिता का प्रसंग भले न हो, क्योंकि आपने अर्थभेद की कल्पना कर ली है। किन्तु 'गो आदि शब्द सामान्यवाचक हैं और शाबलेयादिशब्द विशेषवाचक हैं यह व्यवस्था सामान्य और विशेष को माने विना कैसे होगी ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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