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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् बह्वल्पविषयत्वेन तत्संकेतानुसारतः । सामान्य-भेदवाच्यत्वमप्येषां न विरुध्यते ॥
वृक्षशब्दो हि सर्वेष्वेव धव-खदिर-पलाशादिष्ववृक्षव्यवच्छेदमात्रानुस्यूतं प्रतिबिम्बकं जनयति, तेनास्य बहुविषयत्वात् सामान्यं वाच्यमुच्यते, धवादिशब्दस्य तु खदिरादिव्यावृत्तकतिपयपादपाध्यवसायिविकल्पोत्पादकत्वाद् विशेषो वाच्यं उच्यते।
यदुक्तम् 'अपोह्यभेदेन' (पृ. ५२ पं० ६) इत्यादि, तत्र - [तत्त्वसंग्रहे १०४६ तः १०४९] ताश्च व्यावृत्तयोऽर्थानां कल्पनाशिल्पिनिर्मिताः । नापोह्याधारभेदेन भियन्ते परमार्थतः ॥ तासां हि बाह्यरूपत्वं कल्पितं न तु वास्तवम् । भेदाभेदौ च तत्त्वेन वस्तुन्येव व्यवस्थितौ ॥ स्वबीजानेकविलिष्टवस्तुसङ्केतशक्तिः । विकल्पास्तु विभियन्ते तद्रूपाध्यवसायिनः ॥ नैकात्मतां प्रपद्यन्ते न भिद्यन्ते च खण्डशः । स्वलक्षणात्मका अर्था विकल्पः प्लवते त्वसौ ॥
अस्य सर्वस्याप्ययमभिप्रायः - यदि हि पारमार्थिकोऽपोह्यभेदेनाधारभेदेन वाऽपोहस्य भेदोऽभीष्टः स्यात् तदैतद् दूषणं स्यात्, यावता कल्पनया सजातीय-विजातीयपदार्थभेदैरिव व्यावृत्तयो भिन्नाः कल्प्यन्ते न परमार्थतः । ततः ताच कल्पनावशादव्यतिरिक्ता इव वस्तुनो भासन्ते न परमार्थतः । परमार्थतस्तु विकल्पा एव भियन्ते अनादिविकल्पवासनाऽन्यविविक्तवस्तुसंकेतादेनिमित्ताद् व्यावृत्तवस्त्वध्यवसायिनः, न
उत्तर : इस के लिये भी हमें सामान्य को मानने की जरूरत नहीं है । कारण, "बहुत्वविषयक और अल्पत्वविषयक संकेत के अनुसार अमुक शब्द का वाच्य सामान्य और अमुक शब्द का वाच्य विशेष है यह व्यवस्था भी घट सकती है।" जैसे -
'वृक्ष' शब्द धव-खदिर-पलाशादि सभी वृक्षों में अवृक्षव्यावृत्तिसंश्लिष्ट प्रतिबिम्ब को पैदा करता है, अत: बहुविषयक होने से, उस का वाच्य 'सामान्य' कहा जायेगा । 'धव' इत्यादिशब्द खदिरादि से भिन्न कुछ ही वृक्षों को विषय करने वाले विकल्प के उत्पादक होने से, उस का वाच्य 'विशेष' कहा जायगा।
★भेद या अभेद व्यावृत्तियों में नहीं, विकल्प में ★ पहले जो यह कहा था - 'वस्तुभूत सामान्य माने विना अपोह्यभेद से अपोहों का भेद सिद्ध नहीं हो सकता' - उस के उपर यह कहते हैं कि - (तत्त्वसंग्रह की ४ कारिका के बाद उन सभी का अभिप्राय भी टीकाकार ने उद्धृत किया है - इस लिये नीचे दोनों का पृथक् पृथक् नहीं, मिलितरूप से ही विवरण लिखा
यदि हम अपोह्यभेद से या आधारभेद से अपोह के भेद को पारमार्थिक मानते तब तो वह दूषण लग सकता । किन्तु हम तो वैसे कल्पना से जैसे पदार्थों में सजातीयों के और विजातीयों के भेद की कल्पना करते हैं - वैसे कल्पना से ही व्यावृत्तियों का भी भेद मानते हैं, पारमार्थिक भेद नहीं मानते । तथा, कल्पनावश ही ये व्यावृत्तियाँ 'बाह्य वस्तु से अपृथक् हो' ऐसा भास होता है, वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि परमार्थ से तो भेद या अभेद वस्तु में ही होते हैं अवस्तु में नहीं ।
___ व्यावृत्तियों का भेद तो काल्पनिक है । वास्तव में तो बीजभूत अनादिकालीन तथाविधविकल्पवासना, अन्य *. 'तानुमानतः' इति मुद्रिते तत्त्वसंग्रहे । .. कल्पनावशाद् व्यतिरिक्ता - इति पाठः तत्त्वसंग्रहे।
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