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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ त्वर्थाः । तथाहि - वृक्षत्वादिसामान्यरूपेण नैकात्मतां धवादयः प्रतिपद्यन्ते, नापि क्षणिकाऽनात्मकादिधर्मभेदेन खण्डशो भिद्यन्ते, केवलं विकल्प एव तथा प्लवते, न त्वर्थः । यथोक्तम् - [प्र.वा. ३/८६]
"संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः । रूपमेकमने वा तेषु बुद्धरुपप्लवः ॥" यच्चोक्तम् - 'न चाऽप्रसिद्धसारूप्य..' (पृ. ५० पं० ३) इत्यादि, तत्र - [तत्त्वसंग्रहे १०४९] "एकधर्मान्वयाऽसत्त्वेऽप्यपोह्याऽपोहगोचराः । वैलक्षण्येन गम्यन्तेऽभिन्नप्रत्यवमर्शकाः ॥"
अपोह्याच अपोहगोचराचेति विग्रहः । तत्रापोह्या अश्वादयः गोशब्दस्य तदपोहेन प्रवृत्तत्वात्, अपोहगोचराः शाबलेयादयः तद्विषयत्वाद् अगोऽपोहस्य । तेन यद्यप्येकस्य सामान्यरूपस्यान्वयो नास्ति तथाप्यभिन्नप्रत्यवमर्शहतवो ये ते प्रसिद्धसारूप्या भवन्ति, ये तु विपरीतास्ते विपरीता इति । स्यादेतद् - तस्यैवैकप्रत्यवमर्शस्य हेतवोऽन्तरेण सामान्यमेकं कथमा भिन्नाः सिद्धयन्ति ? उच्यते - [तत्त्वसंग्रहे - १०५०]
“एकप्रत्यवमर्श हि केचिदेवोपयोगिनः । प्रकृत्या भेदवन्तोऽपि नान्य इत्युपपादितम् ॥" अनेक पदार्थो से स्वत:व्यावृत्त वस्तु और उस का संकेत - इन के प्रभाव से व्यावृत्तियों में भेदाध्यवसायि विकल्प ही भिन्न भिन्न होते हैं न कि अर्थ । देखिये - वृक्षत्वादि (काल्पनिक) सामान्यरूप से धवादि कोई एकात्मभाव को प्राप्त नहीं हो जाते; तथा क्षणिकत्व, अनात्मकत्व आदि धर्मों के भेद से कोई एक धवादि खण्ड खण्ड भिन्न नहीं हो जाते हैं। सिर्फ तत्तदध्यवसायि विकल्प ही एक या अनेक रूप से उत्थित होता है । जैसे कि प्रमाणवार्त्तिक में कहा है कि - "पारमार्थिक अर्थ न तो अपने रूप से संसृष्ट होता है, न तो भिन्न रहता है, फिर भी उनमें एक गोत्वादि अनुगत धर्म का या कृतकत्वादि अनेक विशेषों का व्यवहार चलता है वह सब अनादिकालीनवासना से उत्थित विकल्पबुद्धि का उपप्लव है" ।
★ सामान्य के विना भी अभिन्नप्रत्यवमर्श से सारूप्य * पहले जो यह कहा था कि “गौसमूह में सारूप्य यानी एक सामान्यधर्म का अस्वीकार करने पर गोवर्ग ही अश्वादिव्यावृत्ति का आश्रयरूप कैसे सिद्ध हो सकेगा ?" इस के उत्तर में अब कहते हैं कि - "एकधर्म का अन्वय न होने पर भी अपोह्य और अपोहगोचर अभिनप्रत्यवमर्श के हेतु होने पर विलक्षण रूप से ज्ञात हो सकते हैं।" - यहाँ अपोह्य का अर्थ है अश्वादि क्योंकि उस का अपोह करते हुए गोशब्द प्रवृत्त होता है; और अपोहगोचर का मतलब है शाबलेयादि गोवर्ग क्योंकि अगोअपोह का वही विषय यानी आश्रय है। उत्तर का तात्पर्य यह है कि समस्त गोवर्ग में यद्यपि किसी एक गोत्वादि सामान्यधर्म का अन्वय हम नहीं मानते हैं, फिर भी जिस जिस पिण्ड से अभिन्न प्रत्यवमर्श यानी एक - समान विकल्प उत्पन्न होता है उन पिण्डों में (गोवर्ग में) सारूप्य - सामान्य का व्यवहार होगा और जिस पिण्ड में वैसा समान विकल्प नहीं ऊठेगा उसमें (अश्वादि में) वैलक्षण्य का व्यवहार होगा । इस तरह एक धर्मान्वय के अभाव में भी समानविकल्पमूलक सारूप्यव्यवहार हो सकता है।
प्रभ : एक सामान्यधर्म के अभाव में सर्वथा अन्योन्य भिन्न अमुक ही गोवर्गरूप अर्थ उस एक (=समान) विकल्प के ही हेतुरूप में भी कैसे सिद्ध होंगे ?
उत्तर : "हमने यह पहले सिद्ध किया है कि सभी अर्थ अन्योन्य भिन्न होते हुये भी स्वभाव से ही
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