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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रतिपादितमेतत् सामान्यपरीक्षायाम् – 'यथा धात्र्यादयोऽन्तरेणापि सामान्यमेकार्थक्रियाकारिणो भवन्ति तथैकप्रत्यवमर्शहतवो भिन्ना अपि भावाः केचिदेव भविष्यन्ति' इति ।। _ 'न चान्वयविनिर्मुक्ताः'.. (पृ. ५० ५० १०) इत्यादावाह - यद्यपि सामान्य वस्तुभूतं नास्ति तथापि विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणमात्रेणैवान्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते । यस्मिन्नधूमतो भिन्न विद्यते हि स्वलक्षणम् । तस्मिन्ननग्नितोऽप्यस्ति परावृत्तं स्वलक्षणम् ॥ यथा महानसे वेह विद्यतेऽधूमभेदि तत् । तस्मादनग्नितो भिन्न विद्यतेऽत्र स्वलक्षणम् ॥ [तत्त्वसंग्रहे-१०५२-५३] . अवयवपंचकमपि स्वलक्षणेनान्वये क्रियमाणे शक्योपदर्शनमित्येवं प्रयोगप्रदर्शनं कृतम्, इदं च कार्यहेताबुदाहरणम् । स्वभावहेतावपि - यद् असतो व्यावृत्तं स्वलक्षणं तत् सर्व स्थिरादपि व्यावृत्तम् यथा बुद्धयादि, तथा चेदं शब्दादि स्वलक्षणमसद्रूपं न भवतीति । अमुना न्यायेन विशेषाऽसंस्पर्शात् स्वलक्षणेनाऽन्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते । यदि तर्हि स्वलक्षणेनैवान्वयः कथं सामान्यलक्षणविषयमअमुक ही (गोवर्गादिरूप) अर्थ समानविकल्प के उद्भव के हेतु होते हैं ।" सामान्यपरीक्षा प्रकरण में यह कह दिया गया है कि जैसे धात्री (आँवला) आदि औषधों में एक सामान्यधर्म न होने पर भी वे रोगनाश आदि समानार्थक्रिया करते हैं, सब नहीं करते । उसी तरह सभी पदार्थ भिन्न होते हुये भी कुछ ही पदार्थ स्वभावत: ऐसे होते हैं जो समान विकल्प उत्पन्न करते हैं । ★ स्वलक्षण से ही अन्वयकार्यसम्पादन * पहले जो यह कहा था (पृ. ५० पं० ३१) - 'अन्वय यानी वस्तुभूत सामान्य के विना शब्द और लिंग की प्रवृत्ति दुर्घट है' इस के सामने अब यह बात है कि, हालाँकि वस्तुभूत सामान्य हम नहीं मानते हैं, फिर भी विजातीयव्यावृत्तिविशिष्ट स्वलक्षणमात्र से अन्वय किया जाय तो कोई विरोध नहीं है। जैसे कि कहा __ "जिस (पक्ष) में अधूमव्यावृत्तिवाला स्वलक्षण (यानी धूम) होता है उस में अनग्निव्यावृत्तिवाला स्वलक्षण भी रहता है । जैसे कि पाकशाला में अधूमभेदवाला स्वलक्षण रहता है तो अनग्नि भिन्न स्वलक्षण भी वहाँ रहता ही है।" कहने का तात्पर्य यह है कि स्वलक्षणों से ही अतद्व्यावृत्तरूप से अन्वय किया जा सकता है । पहले यहाँ व्याप्ति का निरूपण कर के पाकशाला का दृष्टान्त दिया गया है यह एक संक्षिप्त अनुमानप्रयोग का ही निदर्शन है जिस में व्याप्तिसहित उदाहरणरूप अवयवप्रयोग किया गया है। और इस तरह पाँचो अवयवों का प्रयोग यहाँ किया जा सकता है । धूमस्वलक्षण अग्नि का कार्य है जो यहाँ हेतुरूप में निर्दिष्ट है - अत: यह कार्यहेतुक अनुमान हुआ । स्वभावहेतुक अनुमानप्रयोग भी हो सकता है । जैसे “जो असत् से व्यावृत्त स्वलक्षण होता है वह सब स्थिर से भी व्यावृत्त (यानी क्षणिक) होता है । उदा० बुद्धि आदि स्वलक्षण असद्व्यावृत्त है तो स्थिरव्यावृत्त (क्षणिक) भी है । उसी तरह शब्दादि स्वलक्षण भी असद्व्यावृत्त होते हैं इसलिये स्थिरव्यावृत्त भी होने चाहिये । इन प्रयोगो में विशेष को छुए विना भी (एवं सामान्य के स्वीकार विना भी) सिर्फ व्यावृत्तिमुख स्वलक्षण से अन्वय का किया जाना अविरुद्ध है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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