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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ नुमानम् ? तदेव हि स्वलक्षणमविवक्षितभेदं सामान्यलक्षणमित्युक्तम् 'सामान्येन भेदापरामर्शेन लक्ष्यतेऽध्यवसीयते' इति कृत्वा । तदुक्तम् - [ ]
अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधनात् । सामान्यविषयं प्रोक्तं लिंगं भेदाऽप्रतिष्ठितेः ॥
तेन साहचर्यमपि लिङ्गशब्दयोः स्वलक्षणेनैव कथ्यते । न चाप्यदर्शनमात्रेणास्माभिर्विपक्षे लिङ्गस्याभावोऽवसीयते, किं तर्हि ? अनुपलम्भविशेषादेव ।
___ यज्चोक्तम् 'शाबलेय....' (पृ. ५२ पं० ४) इत्यादि तत्रेदं भवान् वक्तुमर्हति - "शाबलेयाद् बाहुलेयाश्चयोस्तुल्येऽपि भेदे किमिति तुरङ्गमपरिहारेण गोत्वं शाबलेयादौ वर्त्तते नावे ?" इति । स्यादेतत् - "किमत्र वक्तव्यम्, गोत्वस्याभिव्यक्तौ शाबलेयादिरेव समर्थो नाश्वादिः, अतस्तत्रैव तद् वर्तते नान्यत्र । न चायं पर्यनुयोगो युक्तः 'कस्मात् तस्याभिव्यक्तौ शाबलेयादिरेव समर्थः ?' यतो वस्तुस्वभावप्रतिनियमोऽयम्; न हि वस्तूनां स्वभावाः पर्यनुयोगमर्हन्ति तेषां स्वहेतुपरम्पराकृतत्वात् स्वभावभेदप्रतिनियमस्य" इति ।
प्रश्न: जब आप अनुमान में अन्वय की उपपत्ति भी स्वलक्षण से ही करते हैं तब ‘अनुमान सामान्यलक्षण(सामान्य धर्म) विषयक होता है ऐसा क्यों आप कहते हैं ?
उत्तर : विशेषरूप से जिस की विवक्षा न की जाय वैसा वही स्वलक्षण ही सामान्यलक्षण है जो अनुमान का विषय होता है । (सामान्य धर्म को उस का विषय नहीं मानते ) । सामान्य का मतलब है भेद का यानी विशेषरूप का अपरामर्श । इस प्रकार 'भेद का जिस में परामर्श न हो इस ढंग से जो लक्षित - अध्यवसित हो' इस व्युत्पत्ति से हम स्वलक्षण को ही सामान्य लक्षण कहते हैं । जैसे कि कहा है -
"अतद्रूप से व्यावृत्त वस्तुमात्र (स्वलक्षण) को सिद्ध करनेवाला लिंग सामान्यविषयक कहा गया है क्योंकि वह भेद विशेष को स्पर्श भी नहीं करता ।"
लिंग और शब्द का अपने प्रतिपाद्य के साथ जो साहचर्य दिखाया जाता है वह भी अविवक्षित भेदवाले धूम और अग्नि स्वलक्षण के द्वारा ही दिखाया जाता है। हम केवल विपक्ष में न देखने मात्र से ही लिंग के अभाव का यानी विपक्षव्यावृत्ति का निश्चय नहीं कर लेते हैं किन्तु अनुपलम्भ विशेष से उस का निश्चय करते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे स्वलक्षण के साहचर्य दर्शन से अन्वय का निर्णय करते हैं उसी तरह व्यावृत्तिमुख स्वलक्षणात्मक लिंग के अनुपलम्भ से ही हम व्यतिरेक (विपक्षावृत्तित्व) का निश्चय करते हैं ।
★गोत्व अश्व में क्यों नहीं होता?* यह जो कहा था (५२-१५)- "शाबलेयभेद तो बाहुलेय और अश्व दोनों में समान ही है । जब गोत्व सामान्य नहीं मानते तो बाहुलेय और अश्व दोनों में से किस में अगोऽपोह मानेंगे ?" इस के उत्तर में हम भी आप से पूछते हैं कि जब शाबलेय का भेद बाहुलेय और अश्व दोनों में समान है तब गोत्वसामान्य अश्व को छोड कर शाबलेय या बाहुलेय में ही क्यों रहता है, अश्वमें क्यों नहीं रहता ?
सामान्यवादी : "अरे ! इस में क्या पूछने का ? गोत्व की अभिव्यक्ति करने में शाबलेय-बाहलेय पिण्ड ही समर्थ होता है, अश्वादि नहीं । यही कारण है कि गोत्व शाबलेयादि में ही रहता है, अश्वादि में नहीं, क्योंकि यह तो वस्तु का स्वाभाविक नियम है । वस्तु का स्वभाव ऐसा क्यों ? ऐसा प्रश्न उचित नहीं गिना जाता
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