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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् - नन्वेवं यथा शाबलेयादिरेव गोत्वाभिव्यक्तौ समर्थस्तथा सत्यपि भेदे सामान्यमन्तरेणापि तुल्यप्रत्यवमर्शोत्पादने शाबलेयादिरेव शक्तो न तुरङ्गम इत्यस्मत्पक्षो न विरुध्यत एव । तेन - तादृक् प्रत्यवमर्शश्च विद्यते यत्र वस्तुनि । तत्राभावेऽपि गोजातेरगोपोहः प्रवर्त्तते ॥[ तत्त्वसंग्रह का १०५९ ] यच्चोक्तम् ‘इन्द्रियैः’....( पृ० ५२ पं० ८) इत्यादि, तदसिद्धम्, तथाहि - स्वलक्षणात्मा तावदपोह इन्द्रियैरवगम्यत एव । यश्चार्थप्रतिबिम्बात्माऽपोहः स परमार्थतो बुद्धिस्वभावत्वात् स्वसंवेदनप्रत्यक्ष सिद्धः । प्रसह्यात्माऽपि सामर्थ्यात् प्रतीयत एव 'न तदात्मा परात्मा' इति ( पृ० ७९ पं० १) न्यायात्, अतः स्वलक्षणादिरूपमपोहं दृष्ट्वा लोकः शब्दं प्रयुङ्क्त एव न वस्तुभूतं सामान्यम्, तस्याऽसत्त्वाद् अप्रतिभासनाच्च । यदेव च दृष्ट्वा लोकेन शब्दः प्रयुज्यते तेनैव तस्य सम्बन्धोऽवगम्यते नान्येन, अतिप्रसङ्गात् । यच्च 'अगोशब्दाभिधेयत्वं गम्यतां च कथं पुनः ' ( पृ० ५३ पं० ४ ) इति अत्र“ तादृक् प्रत्यवमर्शश्च यत्र नैवास्ति वस्तुनि । अगोशब्दाभिधेयत्वं विस्पष्टं तत्र गम्यते " ॥ (त.सं. १०६२) क्योंकि स्वभावविशेष का नियम अपने हेतुओं की परम्परा से वैसा होता है। जैसे कि अग्नि के हेतु अवयव उष्ण होते हैं तो उस का कार्य अग्नि भी उष्ण होता है 44 ९२ अपोहवादी : अरे तब तो हमारे पक्ष में भी कोई विरोध नहीं है । जैसे आप के मत में शाबलेयादि ही स्वभावतः गोत्व की अभिव्यक्ति में समर्थ माने जाते हैं वैसे हमारे मत में बाहुलेय और अश्व दोनों में समानरूप से शाबलेयभेद रहने पर भी और सामान्य को न मानते हुये भी समान (एक) प्रत्यवमर्श ( समानविकल्प) के उत्पादन में शाबलेय-बाहुलेयादि ही स्वभावतः समर्थ होते हैं, अश्वादि नहीं । इसलिये कहा है कि " तथाविध (समान) प्रत्यवमर्श जिन जिन वस्तुओं में पैदा होता है उन में गोत्व जाति न मानने पर भी अगोअपोह की प्रवृत्ति होती है ।" ★ इन्द्रियादिजन्य बुद्धि में अपोह का भान★ पहले (पृ० ५२ पं० २६) जो यह कहा था कि इन्द्रियों से अपोह का निश्चय होता नहीं... इत्यादि, वह तो जूठा है, क्योंकि हमने जो मुख्य गौण अपोह दिखाये हैं उन में से स्वलक्षणरूप अपोह तो इन्द्रियों प्रत्यक्ष ज्ञात होता ही है । बुद्धिगत अर्थप्रतिबिम्बात्मक अपोह तो वास्तव में बुद्धिस्वरूप ही होने से स्वप्रकाशप्रत्यक्ष से ही ज्ञात होता है । ( बौद्ध मत में ज्ञान को स्वसंविदित ही माना जाता है ।) तथा, प्रसज्यप्रतिषेधरूप अपोह ' तद्रूप वस्तु अन्यस्वरूप नहीं है' इस प्रकार अर्थतः ज्ञात होता ही है । इसीलिये लोग स्वलक्षणादि स्वरूप अपोह को इन्द्रियादि से देख कर ही शब्दप्रयोग करते हैं । 'पारमार्थिक किसी सामान्य धर्म को देख कर शब्दप्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है क्योंकि वह " सामान्य असत् है और बुद्धि में भासता भी नहीं । शब्द का सम्बन्ध भी उसी के साथ मानना चाहिये जिस को देख कर लोग शब्दप्रयोग करते हो, अन्य किसी के साथ नहीं मानना चाहिये । यदि अन्य किसी के साथ शब्दसम्बन्ध मानेंगे तब तो सभी चीजों के लिये हर किसी शब्द का प्रयोग चल पडने पर व्यवहारलोप का अतिप्रसंग हो जायेगा । तथा, यह जो पहले पूछा था ( पृ० ५३-२२) अश्वादि गो शब्द का अभिधेय है ऐसा किस प्रमाण से मानते हैं ? इस का उत्तर यह है कि जिस वस्तु को देखने पर भी 'यह गौ है' ऐसा विमर्श पैदा नहीं होता उस के बारे में स्पष्ट ही भान होता है कि यह गोशब्द का वाच्य नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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