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________________ द्वितीयः खण्डः का० - २ यच्चोक्तम् – ‘सिद्धवागौरपोह्येत' ( पृ० ५४ पं० ६ ) इत्यादि, तत्र स्वत एव हि गवादयो भावा भिन्नप्रत्यवमर्शं जनयन्तो विभागेन सम्यग् निश्चिताः तेषु व्यवहारार्थं व्यवहर्तृभिर्यथेष्टं शब्दः सिद्धः प्रयुज्यते । यदि भिन्नं वस्तु स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमन्यपदार्थग्रहणमपेक्षते तदा स्यादितरेतरदोषः यावताऽन्यग्रहणमन्तरेणैव भिन्नं वस्तु संवेद्यते, तस्मिन् भिन्नाकारप्रत्यवमर्शहेतुतया विभागेन 'गौः गौः ' इति च सिद्धे यथेष्टं संकेतः क्रियत इति कथमितरेतराश्रयत्वं भवेत् ? [ दृष्टव्यम् पृ० ५४ पं० ८ मध्ये ] यच्चोक्तं नाधाराधेय.. . ( पृ० ५४ पं० १०) इत्यादि, तत्र न हि परमार्थतः कश्चिदपोहेन विशिष्टोऽर्थः शब्दैरभिधीयते । ( तेनैव ) यतः प्रतिपादितमेतत्- 'यथा न किञ्चिदपि शब्दैर्वस्तु संस्पृश्यते, क्वचिदपि समयाभावात्' इति । तथाहि - शाब्दी बुद्धिरबाह्यार्थविषयाऽपि सती स्वाकारं बाह्यार्थतयाध्यवसन्ती जायते, न परमार्थतो वस्तुस्वभावं स्पृशति यथातत्त्वमनध्यवसायात् । यद्येवम् कथमाचार्येक् 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः " [ ] इति ( पृ० ५४ - ९ ) अर्थान्तरनिवृत्त्याह विशिष्टानिति यत्पुनः । प्रोक्तं लक्षणकारेण तत्रार्थोऽयं विवक्षितः ॥ अन्यान्यत्वेन ये भावा हेतुना करणेन वा । विशिष्टा भिन्नजातीयैरसंकीर्णा विनिश्चिताः ॥ -- - यह जो कहा था ( पृ० ५४-२४) - 'अगौ' व्यक्ति सिद्ध होने पर उसके अपोह से गो का भान शक्य होगा और 'अगौ' तो गोनिषेधरूप होने से गो का भान होने पर 'अगो' का भान होगा - यह अन्योन्याश्रय दोष है" इसके प्रतिकार में बौद्ध कहता है कि गो का भान अगो के अपोह से होता है ऐसा नहीं है, गो आदि पदार्थ तो अपने आप ही स्वविषयक स्वतन्त्र बुद्धि को उत्पन्न करते हुए एक दूसरे से विभक्तरूप से अच्छी तरह ज्ञात होते हैं। ज्ञात होने के बाद व्यवहारी लोग उन के व्यवहार के लिये इच्छा के अनुसार प्रसिद्ध शब्दप्रयोग करते हैं । देखिये - एक वस्तु के अपने स्वरूप के बोध के लिये अगर अन्य वस्तु के बोध की अपेक्षा रहे तो जरूर अन्योन्याश्रय दोष लग सकता है ! किन्तु यहाँ तो अन्यवस्तुबोध के विना ही एक भिन्न वस्तु का संवेदन होता है । संवेदन होने पर उस भिनाकार विमर्श के हेतुरूप में स्वतंत्ररूप से गौ ही गौरूप जब सिद्ध होती है तब उस में कोई भी संकेत इच्छानुसार किया जा सकता है । इस में अन्योन्याश्रय का गन्ध भी कहाँ है ? Jain Educationa International - ९३ ★ शब्द से अपोहविशिष्ट अर्थ का अभिधान कैसे ? ★ यह जो कहा था अभावात्मक होने से अभाव में आधाराधेयभावादि सम्बन्ध सम्भव नहीं है और विशेषण - विशेष्यभाव भी संभव नहीं है... इत्यादि.... ( पृ० ५५ - १३) इस के सामने यह बात है कि परमार्थतः देखा जाय तो शब्दों के द्वारा कोई अपोह से विशिष्ट अर्थ का प्रतिपादन होता ही नहीं है । कारण, हम बता चुके हैं कि शब्द किसी भी अर्थ को स्पर्श तक नहीं करता क्योंकि किसी भी अर्थ में शब्द का संकेत ही असम्भव है । देखिये शब्दजन्य बुद्धि बाह्यअर्थ विषयक न होने पर भी अपने ही आकार का बाह्यार्थ के रूप में अध्यास कराती हुई उत्पन्न होती है, परमार्थतः वह वस्तुस्वभाव को स्पर्श ही नहीं करती, क्योंकि तत्त्व यानी वस्तुस्वभाव जैसा होता है वैसे स्वभाव में उस का भान वह शब्दजन्य बुद्धि करती नहीं है । प्रश्न : जब शब्द से विशिष्ट अर्थ का प्रतिपादन सम्भव नहीं है तब आचार्य ने क्यों ऐसा कहा है कि - 'नीलोत्पल' आदि शब्द अर्थान्तर- यानी अनीलादि व्यावृत्ति विशिष्ट उत्पलादि अर्थ का कथन करता है ?' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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