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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ न तदात्मा परात्मेति सम्बन्धे सति वस्तुभिः । व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः ॥ तेनाऽयमपि शब्दस्य स्वार्थ इत्युपचर्यते । न च साक्षादयं शन्दैविविधोऽपोह उच्यते ॥ इति ॥
[दिग्नागवचनतात्पर्यप्रकाशेनोहयोतकरोक्तदषणनिरसनम् ] तेनाचार्यदिग्नागस्योपरि यदुद्दयोतकरेणोक्तम् - "यदि शब्दस्यापोहोऽ(?ना)भिधेयोऽर्थस्तदाऽभिधेयार्यव्यतिरेकेणास्य स्वार्थो वक्तव्यः । अथ स एव स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् 'अन्यशब्दार्थापोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते' इति, अस्य हि वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवत्य(न्यदन)भिदधाना(नो)भिधत्त इति" [न्यायवा० पृ. ३३० पं० २२ - पृ. ३३१ पं० ३] तदेतद् वाक्या
परिज्ञानादुक्तम् । तथाहि - स्वलक्षणमपि शब्दस्योपचारात् स्वार्थ इति प्रतिपादितम् ( )। अतः स्वलक्षणात्मके स्वार्थेऽर्थान्तरव्यवच्छेदं प्रतिविम्बान्तराद् व्यावृत्तं प्रतिविम्बात्मकमपोहं कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इत्युच्यते इत्येतदाचार्यायं वचनमविरोधि ।
___अयमाचार्यस्याशयः - न शब्दस्य बाहार्थाध्यवसायिविकल्पप्रतिबिम्बोत्पादव्यतिरेकेणान्यो बाहाभिधानव्यापारः, निर्व्यापारत्वात् सर्वधर्माणाम् । अतो बाह्यार्थाध्यवसायेन प्रवृत्तं विकल्पप्रतिबिम्ब अनुभव के विना अशक्य है - इस प्रकार) भान होगा इस लिये अन्यव्यावृत्त वस्तुरूप अपोह को भी उपचार से शब्दार्थ मान सकते हैं । कहा है कि - "गौप्रतिबिम्बात्मा अश्वप्रतिबिम्बात्मक नहीं है (इस प्रकार प्रसज्यप्रतिषेधरूप अपोह का शब्दार्थ रूप से भान होगा, तथा) वस्तु के साथ (परम्परया) शब्दसम्बन्ध होने पर व्यावृत्तवस्तु का भी अर्थापत्ति से भान होता है । (इस प्रकार व्यावृत्तवस्तुस्वरूप अपोह का भी भान हुआ) इसलिये यह भी उपचार से शब्द का अपना अर्थ है यह कह सकते हैं । ये दोनों अपोह शब्द के साक्षात् अभिधेय नहीं है।"
★ उद्योतकर के आक्षेपों का प्रत्युत्तर * जब इस प्रकार अपोहवाद संगत है, तब आचार्य दिग्नाग के ऊपर उद्योतकर ने यह कहा है कि "शब्द का वाच्यार्थ यदि अपोह है तो दिग्नागवचन में प्रयुक्त स्वार्थ शब्द का अभिधेय अर्थ से पृथक् अपना कोई अर्थ दिखाना चाहिये । यदि अपोह ही उस का अपना अर्थ है ऐसा मानेंगे तो दिग्नागने जो यह कहा है कि 'अन्य शब्दार्थ का अपने अर्थ में अपोह करती हुई श्रुति अभिधान (= प्रतिपादन) करती है' इस कथन का व्याघात होगा । कारण, यहाँ 'स्वार्थ' से यदि अपोह ही अपेक्षित होगा तब इस वाक्य का यही अर्थ निकलेगा कि अपोह का अभिधान करती हुई श्रुति अभिधान करती है। यहाँ अपोह का ही अपोह करने की बात परस्पर व्याहत है।"
ऐसा जो उद्योतकर ने कहा है वह दिग्नागकथन का अर्थ बिना समझे ही कह दिया है । क्योंकि स्वलक्षण भी उपचार से 'स्वार्थ' ही है यह कहा ही है । इसलिये दिग्नागाचार्य के कथन का जो यह तात्पर्य है - "स्वलक्षणरूप अर्थ में अन्य प्रतिबिम्ब से व्यावृत्त तदर्थप्रतिबिम्बरूप अर्थान्तरव्यवच्छेद यानी अपोह करती हुई श्रुति अभिधान करती है' - इस में कोई विरोध नहीं है।
इस कथन में आचार्य का मुख्य आशय यह है कि बाह्यार्थ रूप से अध्यवसित विकल्पगत अर्थप्रतिबिम्ब को उत्पन्न करने के अलावा और कोई शब्द का बाह्यार्थअभिधान व्यापार नहीं होता क्योंकि सभी बाह्यधर्म ज्ञान की उत्पत्ति के लिये निर्व्यापार होते हैं । इसी लिये ऐसा कहते हैं कि बाह्यार्थ के अध्यवसायरूप में उदित विकल्पप्रतिविम्ब
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